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________________ आर्यमतलीला १३३ परमेश्वर अन्यायी ठहरता है। पाठक | इम से भी अधिक हम यह समझना गण प्राश्चर्य करेंगे और कहेंगे कि अ- चाहते हैं कि जीव को कर्मों का फल न्यायी तो भक्ति से हटाकर फिर में देने ही में ईश्वर अन्यायी होता है सार में फमाने से होता है न कि इस घरगा इम से भी अधिक अर्थात् यह के विपरीत। परन्त स्वामी जी तो कि यदि ईश्वर कमों का फल देव तो मुक्ति को जेनखाना और संमार को | वह पापी हो जाता है और ईश्वर ही मजे उड़ाने का स्थान स्थापित करना नहीं रहता है। चाहते हैं हम कारण वह तो ईश्वरको। हमारे प्रार्य भाई जिन्हों ने अभी अन्यायी ही बतायेंगे यदि वह मुक्त तक कर्म और कर्म फल का स्वरूप नहीं जीवों को सदा के वास्ते मक्ति में | मगझा है, इस बात से प्रार्य करेंगे, | परन्तु उनको हम प्रेम के साथ समस्वामी जी का कथन है कि ईश्वर झाते हैं और यकीन दिलाते हैं कि ही जीवां के बरे भने कर्मों का फल | वह बिचार पूर्वक श्राद्योपान्त इम लेख देता है और मुक्ति प्राप्त करना भी को पढ़ नवे तब उनका यह सत्र प्राकर्मों का फम है। कर्म अनित्य है | श्चर्य दूर हो जायेगा। इस बात के कारण उनका फन नित्य नहीं हो पायं करने में उनका कछ दोष नहीं मकता है इम हेत यदि ईश्वर अनित्य | है क्योंकि स्वयम् स्वामी दयानन्दजी, कर्मों का फन नित्य मुक्ति देवे तो | शिन की शिक्षा पर वह निर्भर हैं, कर्म अन्यायी हो आबंगा। परन्त पद और कर्म फन्न के स्वरूप को नहीं सुबात हम ने पिछने अंत में मनीमांति | मझते थे तय बिचारे मार्य भाई तो मिद्ध करदी है कि मुक्ति कर्मों का क्या समझ मझते हैं ? परन्तु उन को फल नहीं है घरमा मक्ति नाम है उचित है कि वह इस प्रकार के सिकर्मों के क्षप हो जाने का-सर्वथा नाश दांतों की खोज करते रहैं और सीखहोजाने का और जीवात्मा के स्वच्छ । ने का अभ्यास वनाये रक्खें-तब यह और निर्मल हो जाने का सर्व प्रौपा- सब कुछ सीख सकते हैं, क्योंकि पूर्वाधिक भाव दर हो जाने का। आज चार्यों और पूर्व विद्वानों की कृपा से इस लेख में हम यह ममझाना चाहते हिन्दुस्तान में अभी तक प्रात्मिक हैं कि मुक्तनीय को सदा के वास्ते तत्यके विषय में सर्व प्रकारके सिद्धांत मुक्ति में रहने देते में ईश्वर अन्यायी| हेतु और विचार सहित मिल सकते हैं। नहीं होता है बरण बिना कारणाम. प्यारे मार्य भाइयो ! आप संभार वित से नकेल कर संमार के पापों में में देखते हैं कि संसारी मनुष्य राग फंमाने में अन्यायी होता है। और 'द्वष में फंसे हुवे अनेक पाप किया क -
SR No.010666
Book TitleAryamatlila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Tattva Prakashini Sabha
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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