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________________ - Romania- -----AMRAPAMunna.. AAna . मार्यमतलीला ॥ बढ़ता जाता है। तत्र पछि मुक्त जीव | जीयों के पूर्ण ज्ञान का विरोध करने के माल्पा रहेगा ससका ज्ञान पर्गा नहीं वास्ते चुपके से यह भी लिख दिया होगा अर्थात् वह सर्वज्ञ नहीं होगा कि यद्याप उनको पूर्ण ज्ञान मर्व पतो जमको परमानन्द भी प्राप्त नहीं दार्थों का होता है, परन्तु एक माथ होगा । जितनी उमके ज्ञानमें कमी नहीं होता है, वरगा क्रम में ही होता होगी उतना ही नमका प्रानंद कम है, और मन्निहित पदार्थों का ही ज्ञान होगा। परंतु स्वामी दयानन्द जी पू होता है अर्थात् जो पदार्थ उनके सघाचार्यों के आधार पर बार बार यह न्मस होता है उमही का ज्ञान होता लिख चुके हैं कि मकानीव ईश्वर के है। मानो म्वामी जी ने मुक्त जीबके सदृश होकर परम आनंद भीगता है। ज्ञान की सीमा बांधदी और मर्वत से उसके प्रानंद में कोई बाधा नहीं रहती है। और न उमको कोई रुकावट कमती जान मिद्ध कर दिया। रहती है जिसमें उनको दुःख प्राप्त हो। __ मन्नहित अर्थात् मनिकर्ष धान चा. वाक नास्तिकों ने माना है । जो बस्तु फिर माननीव को मज न मानना वास्तवमें नमको दुःखी बगान करना है। | इन्द्रियों मे भिजावे उम ही का ज्ञान प्यारे पाठको! सत्यार्थ प्रकाश के पृष्ठ होना दूरवर्ती पदार्थ का ज्ञान न होना २५२ मे जो लेख हमने स्वामी जी का मनिक जान कहलाता है । वेचारे निखा है उसके पदन में आपका स्वामी स्वामी दयानन्द को मुक्त जीय की जी की चालाकी भी मानम हो गई। सर्वज्ञता नष्ट करने के वास्ते नास्तिक होगी। यद्यपि पूर्वाचायोंके कथनान- का भी मिद्धान्त ग्रहण करना पड़ा पमार स्वामी जी को लाचार यह | रन्तु कायं कुछ न वना, क्योंकि समा. लिखना पहा कि ज्ञान ही मुकजी-री जीव जो विकार सहित होने के का वोंका प्रानन्द है और उन को पा रगा इन्द्रियों के द्वारा ही ज्ञान प्राप्त शान होकर पर्ण प्रानन्द अर्थात् | करता है वह भी सूर्य और ध्रयतारा परम पानंद प्राप्त होता है, पर- प्रादिक बहुत दूरवर्ती पदार्थों को देमत स्वामीजी तो संमार सुखको सुख खमक्ता है । इस कार गा विकार रहित मानते हैं- प्रेम और प्रीतिके ही मोहचान स्वरूप मुक्तजीवमें मन्निकर्ष ज्ञान जाल में फंसे हुवे हैं और नाना प्रकारको स्थापन करना तो कत्यन्त ही मूकेही रस भीगने को प्रानन्द मानते खना है। स्वामी जी स्वयम् सत्यार्थ है इस कारण इस लिखने में न रुके प्रकाश में रहते हैं कि संमारी जीवों कि वह आपममें मुक्त जीवासे मिलते पर प्रज्ञान का प्रावरण होता है। हुये फिरते रहते हैं, अर्थात् मोहजाल यह पाबरगा दूर होकर ही जीयका में वह भी फंसे रहते हैं और मुक्त ज्ञान बढ़ता है और जब यह साबरण
SR No.010666
Book TitleAryamatlila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Tattva Prakashini Sabha
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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