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________________ मार्यमतलीला ॥ ध्याप्त दोष है। परशा यदि अधिक भी ज्ञान नहीं है वह ही तो बातु जड़ विचार किया जावे तो संसारी जीव | व अचेतन कहलाती है। इस हेतु इम। के भी यह लक्षण नहीं हो सक्त हैं लक्षण में प्रत्याप्त दोष नहीं है। इस क्योंकि संमारी जीवों में स्वामी दया- में प्रतिध्याप्ति दोष भी नहीं है क्योंकि नन्द जी ने सत्यार्थप्रकाशमें वृक्ष प्रा. जीवके सिवाय ज्ञान किसी अन्य वस्तु दिक स्थावर जीव भी माने हैं, जो अपनी | में होही नहीं सकता है। जीवमें जान पनी इच्छा के अनसार चल फिरनहीं प्रत्यक्ष विद्यमान है इस कारण इसमें मक्ते हैं और उन के भांखें भी नहीं | अमम्भव दोष भी नहीं है। होती हैं जिनको वह खोल मंद सकें। स्वामी दयानन्द मरस्वतीजी यह तो और स्वामी दयानन्द जी ने वैशेषिक | मानते ही हैं कि मुक्ति अवस्थामें जीव शाखके आधार पर अपनी इच्छा के | | देह रहित होता है और जान ससका अनमार चलना फिरना और भाखोंका देहधारी जीवोंसे अधिक होता है। मूंदना खोलना भी जोवका लक्षण व- इस हेतु जीवके ज्ञानका आधार प्रांख र्णन किया है । लक्षणा वह ही हो सक नाक कान मादिक इन्द्रियों पर नहीं ताको कभी किमी अवस्थामें भी हो सकता है बरण संसारी जीव रागलक्ष्य वस्तुसे दूर न हो सके। जो लक्षण किमी वस्तु का कहा जाये द्वेष प्रादिक विकारों के कारख अशुद्ध यदि वह लक्षणा उम वस्तुसे पृथक अन्य हो रहा है जिसमे इसका ज्ञान गुण किमी वस्तु में भी पाया जाये तोम मैगा रहता है और पूर्णकाम नहीं कर लक्षणा में अतिव्याप्त दोष होता है जैसे मझता है । इम कारण संसारी देहधा री जोवको इन्द्रियोंकी हम ही प्रकार आंखों का बोलना मंदना प्रादिक फ्रिया) आवश्यकता होती है जिम प्रकार मांधातुके खिलौने में भी हो जाती हैं। जिनमें कोई काम लगा दी जाती है। ख के विकार वालोंको ऐनककी श्राव जिम बस्तका लक्षण वर्णन कियावश्यकता होती है वा जिम प्रकार बयदि वह लक्षणा तम अन्त में कभी इट वा कमजोर मनुष्यको लाठी पकड भी न पाया जाये तो उस लक्षणमें अ-/ कर चचनेकी जरूरत होती है। क्यों संभव दोष होता है। ज्यों अच्छा द्वष प्रादिक संसारी जीव जीवका नक्षण वास्तव में ज्ञानही हो | के मेन ध्यान, तप और समाधि माता है क्योंकि इस नक्षगामें इन ती-श्रादिकसे दूर होते जाते है त्यों त्यों नों दोनों में में कोई भी दोष नहीं है। जीवक्री ज्ञानशक्ति प्रकट होती है और कोई अवस्था जीवकी ऐसी नहीं हो अतीन्द्रिप जान प्राप्त होता जाता है।। मझती है जब इममें थोड़ा वा बहुत इम विषयमें स्वामी दयानन्द जी इस ज्ञान न हो क्योंकि जिम में किंचिन्मात्र प्रकार लिखते हैं।
SR No.010666
Book TitleAryamatlila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Tattva Prakashini Sabha
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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