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प्रार्यनतलीला ||
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आदि साधन किये जाते हैं-मुक्ति तो मी रखना चाहिये आप तो यह भी बहुत दूर बात है संसार में भी सा कहते हैं कि जीवात्मा मुक्ति प्राप्त कमार साधु की निन्दा की जाती है रने के पश्चात् संकल्प मय शरीर से और वह बहुरूपिया गिना जाता है इच्छानुसार विचरता रहता है शरीर यदि वह इच्छा के वश होता है-संसार संकल्प मय हो वा स्थूल हो परन्तु के सर्व जीव इच्छा हो के तो बंधन में शरीर जब ही कहलावेगा जब कि माफंसे हुवे भटकते फिरते हैं परन्तु स्वाकार होगा और जब कि मुक्ति दशा में भी जीव का शरीर रहता है तो मी दयानन्द जी ने जीवात्माको सदा के लिये भटकने के वास्ते मुक्ति दशा जीव को श्राप निराकार कह ही नहीं में भी उम को इच्छा का गुलाम बना सकते हैं । आप ने तो अपना मुंह दिया ! स्वामी जी को इतनी भी सूझ याप बन्द कर लिया। आप को तो न हुई कि इच्छा ही का तो नाम | जीव को स्वाभाविक साकार मानना दुःख है जहां पृच्छा है वहीं दुःख है पड़ गया। यदि आप यह कहैं कि और जहां इच्छा नहीं है वहीं मुख है । ब्रह्म सर्वव्यापक है कोई स्थान ब्रह्म परन्तु स्वामी जी को यह बात सूझती से खाली नहीं है और मर्व जगत् उम कैसे ? उनका ती उद्देश्य ही यह था ही में बास करता है तो यह कहना कि वैराग्य धर्म का गोप करके संसार बिल्कुल व्यर्थ हुआ कि मुक्ति दशा को वृद्धिकी शिक्षा मनुष्यमात्र को प्राप्त होकर जीवात्मग्रह्म में बाम क स्वामी जी महाराज इम २० से! रता है क्यं प्रकार तो जीव पूछते हैं कि मुक्ति दशा में जीवात्मा ब्रह्म में बास करता है ऐसा जो आप मे लिखा है इसका अर्थ क्या है? क्या ब्रह्म कोई मकान वाले क्षेत्र हैं जिसमें मुक्ति जोव जा बनता है ? जाप तो ब्रह्म को निराकार मानते हैं उस में कोई दूसरी वस्तु बाम कैसे कर सक्ती है ? यदि आप यह कहें कि जिस प्रकार ब्रह्म निराकार है उस ही प्रकार जीव भी निराकार है इस कारण निराकार वस्तु निराकार में बास कर
सदा ही ब्रह्म में बास करता है वह चाहे मुक्त हो चाहे संसारी चाहे पुम्यवान हो वा पापी बरक कुत्ता बिजो ईंट पत्थर सब हो ब्रह्म में बास कर रहा है मुक्त जीवके वास्ते ब्रह्म में बाम करने की कोई विशेषता न हुई
पाठक गयो ! स्वामी जी स्वयम् एक स्थान पर यह लिखते हैं कि मुक्त होकर जीवात्मा के गुण कर्म और स्वभाव ब्रह्मके स सकती है। परंतु स्वामीजी महाराज ! मान हो जाते हैं और स्वामीजी जरा अपनी कही हुई बात को यः । को यह भी लिखना पड़ा है कि