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५३ करना बड़ा भारी पाप है । अंजनासुंदरीने अपने पूर्वजन्ममें थोड़े ही कालके लिये, जिनप्रतिमाको छिपाकर, अपनी सौतनके दर्शन पूजनमें अंतराय डाला था। जिसका परिणाम यहातक कटुक हुआ कि उसको अपने इस जन्ममे २२ वर्षतक पतिका दुसह वियोग सहना पड़ा और अनेक संकट और आपदाओंका सामना करना पड़ा, जिनका पूर्ण विवरण श्रीपनपुराणके देखनेसे मालूम हो सकता है।
रयणसार प्रथमें श्रीकुन्दकुन्द मुनिराजने लिखा है कि "दूसरोंके पूजन और दानमे अन्तराय (विन) करनेसे जन्मजन्मान्तरमें क्षय, कुष्ट, शूल, रकविकार, भगंदर, जलोदर, नेत्रपीडा, शिरोवेदना आदिक रोग तथा शीत उष्णके आताप और (कुयोनियोंमे) परिभ्रमण आदि अनेक दु.खोंकी प्राप्ति होती है ।" यथा - "खयकुट्टसूलमूलो लोयभगंदरजलोदरक्खिसिरो।
सीदुण्हबाराइ पूजादाणंतरायकम्मफलं ॥ ३३ ॥" इसलिये पापोसे डरना चाहिये और किसीको दडादिक देकर पूजनसे वचित करना तो दूर रहो, भूल कर भी ऐसा कार्य नहीं करना चाहिये जिससे दूसरोंके पूजनादिक धर्मकार्योंमें किसी प्रकारसे कोई बाधा उपस्थित हो । बल्कि
उपसहार। उचित तो यह है कि, दूसरोंको हरतरहसे धर्मसाधनका अवसर दिया. जाय और दूसरोंकी हितकामनासे ऐसे अनेक साधन तैयार किये जाय जिनसे सभी मनुष्य जिनेन्द्रदेवके शरणागत हो सके और जैनधर्ममें श्रद्धा और भक्ति रखते हुए खुशीसे जिनेन्द्रदेवका नित्यपूजनादि करके अपनी आत्माका कल्याण कर सकें।
इसके लिये जैनियोंको अपने हृदयकी संकीर्णता दूरकर उसको बहुत कुछ उदार बनानेकी ज़रूरत है। अपने पूर्वजोंके उदार-चरितोंको पढकर, जैनियोंको, उनसे तद्विषयक शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये और उनके अनु. करणद्वारा अपना और जगतके अन्य जीवोंका हितसाधन करना चाहिये ।