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हो सकती है । इसलिये किसी क्षुद्र या नीचे दर्जेके मनुष्यके पूजन कर लेनेसे परमात्माकी आत्मामे कुछ मलिनता आ जायगी, उसकी प्रतिमा बपूज्य हो जायगी, अथवा पूजन करनेवालेको कुछ पाप बन्ध हो जायगा, इस प्रकारका कोई भय ज्ञानवान् जैनियोंके हृदयमें उत्पन्न नहीं हो सकता। जैनियोंके यहां इस समय भी चांदनपुर (महावीरजी) आदि अनेक स्थानोंपर ऐसी प्रतिमाओंके प्रत्यक्ष दृष्टान्त मौजूद है, जो शुद्ध या बहुत बीचे दर्जेके मनुष्योद्वारा भूगर्भसे निकाली गई-स्पर्शी गई-पूजी गई और पूजी जाती हैं, परन्तु इससे उनके स्वरूपमे कोई परिवर्तन नहीं हुआ, न उनकी पूज्यतामे कोई फर्क (भेद) पड़ा और न जैनसमाजको ही उसके कारण किसी अनिष्टका सामना करना पड़ा, प्रत्युत वे बराबर जैनियोहीसे नहीं किन्तु अजैनियोसे भी पूजी जाती हैं और उनके द्वारा सभी पूजकोंका हितसाधन होनेके साथ साथ धर्मकी भी अच्छी प्रभावना होती है। बत. जैनसिद्धान्तके अनुसार किसी भी मनुष्यके लिये नित्यपूजनका निषेध नहीं हो सकता । दस्सा, अपध्वंसज या व्यभिचारजात सबको इस पूजनको पूर्ण अधिकार प्राप्त है। यह दूसरी बात है कि-अपने आन्तरिक देष, आपसी वैमनस्य, धार्मिक भावोंके अभाव और हृदयकी संकीर्णता आदि कारणोंसे-एक जैनी किसी दूसरे जैनीको अपने घरू या अपने अधिकृत मंदिरमे ही न आने दे अथवा आने तो दे किन्तु उसके पूजन कार्यमें किसी न किसी प्रकारसे वाधक हो जावे । ऐसी बातोंसे किसी व्यक्तिके पूजनाधिकारपर कोई असर नहीं पड़ सकता । वह व्यक्ति खुशीसे उस मदिरमे नहीं तो, अम्पत्र पूजन कर सकता है । अथवा स्वय समर्थ और इस योग्य होनेपर अपना दूसरा नवीन मदिर भी बनवा सकता है। अनेक स्थानोंपर ऐसे भी नवीन मदिरोंकी सृष्टिका होना पाया जाता है।
यहांपर यदि यह कहा जाये कि आगम और सिद्धान्तसे तो वस्सोंको पूजनका अधिकार सिद्ध है और अधिकतर स्थानोंपर वे बराबर पूजन करते भी हैं, परन्तु कहीं कहींपर दस्सोको जो पूजनका निषेध किया जाता है वह किसी जातीय अपराधके कारण एक प्रकारका तत्रस्थ जातीय दंड है। तो क. हना होगा कि शानोंकी भाशाको उल्लघन करके धर्मगुरुओंके उद्देश्य विरुद्ध ऐसा दंड विधान करना कदापि न्यायसंगत और माननीय नहीं हो सकता