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होसकता । वह कोई ऐसा ही प्रभावशाली, माननीय, सर्वगुणसम्पन्न असाधारण व्यक्ति होना चाहिये। __ इन सबके अतिरिक्त, पूजकाचार्य या प्रतिष्ठाचार्यका जो स्वरूप, धर्मसंग्रहश्रावकाचार, पूजासार और प्रतिष्ठासारोद्धार आदिक जैनशास्त्रोम स्पष्टरूपसे वर्णन किया गया है उससे इस स्वरूपकी प्रायः सब बाते मिलती है । जिससे भलेप्रकार निश्चित होता है कि यह स्वरूप प्रतिष्ठादिविधान करनेवाले पूजक अर्थात् प्रतिष्टाचार्य या पूजकाचार्यसे ही सम्बन्ध रखता है । यद्यपि इस निबन्धमें पूजकाचार्य या प्रतिष्टाचार्यका स्वरूप विवेचनीय नहीं है, तथापि प्रसंगवश यहापर उसका किचित् दिग्दर्शन करादेना जरूरी है ताकि यह मालूम करके कि दूसरे शास्त्रोमे भी प्राय यही स्वरूप प्रतिष्ठाचार्य या पूजकाचार्यका वर्णन किया है, इस विषयमे फिर कोई सदेह बाकी न रहे । सबसे प्रथम धर्मसंग्रहश्रावकाचारहीको लीजिये। इस प्रथके ९ वे अधिकारमे, नित्यपूजकका स्वरूप कथन करनेके अनन्तर, श्लोक न १४५ से १५२ तक आठ श्लोकोमे पूजकाचार्यका स्वरूप वर्णन किया है। वे श्लोक इस प्रकार है - "इदानीं पूजकाचार्यलक्षणं प्रतिपाद्यते। ब्राह्मणः क्षत्रियो वेश्यो नानालक्षणलक्षितः ॥१४५॥ कुलजात्यादिसंशुद्धः सदृष्टिदेशसंयमी। वेत्ता जिनागमस्याग्नालस्यः श्रुतबहुश्रुतः ॥ १४६॥ ऋजुर्वाग्मी प्रसन्नोऽपि गंभीरो विनयान्वितः । शौचाचमनसोत्साहो दानवान्कर्मकर्मठः ॥१४७॥ साङ्गोपाङ्गयुतः शुद्धो लक्ष्यलक्षणविन्सुधीः । खदारी ब्रह्मचारी वा नीरोगः सक्रियारतः ॥ १४८ ॥ वारिमंत्रव्रतस्त्रातः प्रोषधवतधारकः । निरभिमानी मौनी च त्रिसंध्यं देववन्दकः ॥ १४९ ॥ श्रावकाचारपूतात्मा दीक्षाशिक्षागुणान्वितः। क्रियाषोडशभिः पूतो ब्रह्मसूत्रादिसंस्कृतः ।। १५० ॥