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कि पूजन करना जिसप्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्योंका धार्मिक कर्म है उसीप्रकार वह शूद्रोंका भी धार्मिक कर्म है ।
इसी धर्मसंग्रहश्रावकाचारके ९ वे अधिकारके श्लोक न १४२ मे, जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, श्रीजिनेन्द्रदेवकी पूजा करनेवालेके दो भेद वर्णन किये है-एक नित्यपूजन करनेवाला, जिसको पूजक कहते है । और दूसरा प्रतिष्ठादि विधान करनेवाला, जिसको पूजकाचार्य कहते है । इसके पश्चात दो श्लोकोमे, उचे दर्जेके नित्यपूजकको लक्ष्य करके, प्रथम भेट अर्थात पूजकका स्वरूप इसप्रकार वर्णन किया है - "ब्राह्मणादिचतुर्वर्ण्य आद्यः शीलवतान्वितः। सत्यशौचदृढाचारो हिमाद्यत्तदृग्गः ॥१४३॥ जात्या कुलेन पूतात्मा शुचिबन्धुसुहृजनः ।
गुरूपदिष्टमंत्रण युक्तः स्यादेष पूजकः ॥ १४४॥" अर्थात-ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य और शट, इन चारो वर्णोमसे किसी । भी वर्णका धारक, जो-दिग्विनि, देशविरति, अनर्थदडविरति, सामायिक, प्रोषधोपवाए, भोगोपभोगपरिमाण और अतिथिसविभाग, इसप्रकार सतशील व्रतकर सहित हो सत्य और शौचका दृढतापूर्वक (निरतिचार) आचरण करनेवाला हो, सत्यवान् शौचवान् और दृढाचारी हो, हिमा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह, इन पाच अवतो (पापो) से रहित हो, जाति और कुलसे पवित्र हो, बन्धु मित्रादि कसे शुद्ध हो और गुरु उपदेशित मत्रसे युक्त हो वा ऐसे मत्रसे जिसका सम्कार हुआ हो, वह उत्तम पूजक कहलाता है । इसीप्रकार पूजासार प्रथमें भी पूजकके उपर्युक्त दोनो भेदोका कथन करके, निम्न लिखित दो श्लोकोमे नित्यपूजकका, उत्कृष्टापेक्षा, प्राय समस्त यही स्वरूप वर्णन किया है। यथा.--
"ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यः शुद्रो वाऽऽद्यः सुशीलवान् । दृढव्रतो दृढाचारः सत्यशोचसमन्वितः ॥१७॥