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तिस्मरण होगया था, श्रीजिनेंद्रदेवकी पूजाके लिये मुखमे एक कमल दबाकर उछलता और कूदता हुआ नगरके लोगोके साथ समवसरणकी
ओर चल दिया । मार्गमे महाराजा श्रेणिकके हाथीके पैरतले आकर वह मेडक मर गया और पूजनके इस सकल्प और उद्यमके प्रभावसे, मरकर सौधर्म स्वर्गमे महर्द्धिक देव हुआ। फिर वह देव समवसरणमे आया और श्रीगणधरदेवके द्वारा उसका चरित्र लोगोको मालम हुआ। इससे प्रगट है कि समवसरणादिमे जाकर तियच भी पूजन करते और पूजनके उत्तम फलको प्राप्त होते है।
समवसरणको छोडकर और भी बहुतसे स्थानोपर तिर्यंचोके पूजन करनेका कथन पाया जाता है । पुण्यात्रव और आराधनासारकथाकोशमे लिखा है कि धाराशिव नगरमे एक बंबी थी जिसमे श्रीपार्श्वनाथ स्वामीकी रत्नमयी प्रतिमा एक मजपेमें रक्खी हई थी। एक हाथी, जिसको जातिस्मरण होगया था, प्रतिदिन तालाबसे अपनी सूडमे पानी भरकर लाना और उप बॅबीकी तीन प्रदक्षिणा देकर वह पानी नसपर छोडता और फिर एक कमलका फूल चढाकर पूजन करता और मस्तक नबाता था। इस प्रकार वह हाथी श्रावकवर्मको पालता हुआ प्रतिदिन उस प्रतिमाका पूजन करता था। जब राजा करकंडको यह समाचार मालूम हआ, तब उसने उस बेबीको खुदवाया और उसमस वह प्रतिमा निकली। प्रतिमाके निकलनेपर हाथीने सन्यास धारण किया और अन्तम वह हाथी मरकर सहस्रारस्वर्गम देव हुआ । इसीप्रकार तिर्यचोके पूजनसबधमे और भी अनेक कथाएँ है । जब नियंच भी पूजन करते और पूजनके उत्तम फलको प्राप्त होते है, तब ऐसा कौन मनुष्य होसकता है कि जिसको पूजन न करना चाहिये और जो भावपूर्वक जिनंद्रदेवका पूजन करके उत्तम फलको प्राप्त न हो? अभिप्राय यह कि, आत्महितचिन्तक सभी प्राणियोके लिये पूजन करना श्रेयस्कर है । इसलिये गृहस्थोको अपना कर्तव्य समझकर अवश्य ही नित्यपूजन करना चाहिये।