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ताको अनुभव करते हुए श्रीसकलकीर्ति आचार्य सुभाषितवलीमे यहातक लिखते है कि -
"पूजां विना न कुर्येत भोगसौख्यादिकं कदा ।" अर्थात्--गृहस्थोको विना पूजनके कदापि भोग और उपभोगादिक नहीं करना चाहिये । सबसे पहले पूजन करके फिर अन्य कार्य करना चाहिये । श्रीधर्मसग्रहश्रावकाचारमे गृहस्थाश्रमका स्वरूप वर्णन करते हुए लिखा है कि - "इज्या वार्ता तपो दानं स्वाध्यायः संयमस्तथा । ये षट्कर्माणि कुर्वन्त्यन्वहं ते गृहिणो मताः ॥"
___-अ० , ० २६॥ अर्थात्-इज्या (पूजन), वार्ता (कृषिवाणिज्यादि जीवनोपाय), तप, दान, स्वा-याय, और सयम, इन छह कर्मीको जो प्रतिदिन करने है, वे गृहस्थ कहलाते है । भावार्थ-धार्मिक और लाकिक, उभयदृष्टिसे ये गृहस्थोक छह नित्यकर्म है । गुरूपास्ति जो ऊपर वर्णन की गई है, वह इज्याके अन्तर्गन होनेसे यहा पृथक नहीं कही गई।
भगवजिनसेनाचार्य आदिपुराणके पर्व ३८ में निम्नलिखित श्लोको द्वारा यह सूचित करते है कि ये इज्या, वार्ता आदि कर्म उपासक सूत्रके अनुसार गृहस्थोके पदकर्म है । आर्यषटकर्मरूप प्रवर्त्तना ही गृहस्थोकी कुलचर्या है और इसीको गृहस्थोका कुलधर्म भी
कहते है -
"इज्यां वार्ता च दत्ति च स्वाध्यायं संयमं तपः । श्रुतोपासकसूत्रत्वात् स तेभ्यः समुपादिशत् ॥ २४ ॥ विशुद्धा वृत्तिरस्यार्यषट्कर्मानुप्रवर्त्तनम् । गृहिणां कुलचर्येष्टा कुलधर्मोऽप्यसौ मतः ॥१४४॥" महाराजा चामुण्डरायने चारित्रसारमे और विद्वद्वर प० आशाधरजीने सागरधर्मामृतमे भी इन्हीं षट्कर्मोंका वर्णन किया है । इन