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श्री अकलंकाय नमः ।
जिन-पूजाऽधिकार-मीमांसा ।
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उत्थानिका ।
जो
मनुष्य जिस मनको मानता है - जिस धर्मका श्रद्धानी और अनुयायी है, वह उसी मतवा धर्मके पूज्य और उपास्य देवताओकी पूजा और उपासना करता है । परन्तु आजकलके कुछ जैनियोका खयाल इस सिद्धान्तके " विरुद्ध है । उनकी समझमे प्रत्येक जैनधर्मानुयायीको ( जैनीको ) जिनेंद्रदेवकी पूजा करनेका अधिकार नहीं है । उनकी कल्पनाके अनुसार बहुतसे लोग जिनेन्द्रदेव के पूजकोकी श्रेणीमें अवस्थान नहीं पाते । चाहे वे लोग अन्यमतके देवी देवताओकी पूजा और उपासना भले ही करे, पर जिनेन्द्रदेवकी पूजा और उपासनासे अपनेको कृतार्थ नहीं कर सकते । शायद उनका ऐसा श्रद्धान हो कि ऐसे लोगोके पूजन करनेसे महान् पापका बन्ध होता है और वह पाप शास्त्रोक्त नियमो का उल्लघन करके सक्रामक रोगकी तरह अड़ोसियो- पडौसियों, मिलने जुलनेवालो और खासकर सजातियोको पिचलता फिरता है । परन्तु यह केवल उनका भ्रम है और आज इसी भ्रमको दूर करने अर्थात् श्रीजिनेंद्रदेवके पूजनका किस किसको अधिकार है, इस विषयकी मीमासा और विवेचना करनेके लिये यह निबन्ध लिखा जाता है ।
* इसी प्रकारके विचारोंसे खातौली के दस्सा और बीसा जैनियोके मुकद्दमेका जन्म हुआ और ऐसे ही प्रौढ विचारोंसे सर्धना जिला मेरठ के जिनमंदिरको करीब करीब तीनसालतक ताला लगा रहा ।