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सोना निकल आता है । इस कारण मनुष्य को उचित है कि अपनी प्रवृत्ति को बाह्य वस्तुओं से हटाकर आत्मा के स्वरूप का चितवन करने में तत्पर होवे ।
६ अशुचित्व भावना। यह शरीर मलमूत्र का झरना है, लहू, मास और चर्बी से बना हुआ है और हड्डियों का एक पजर है। कौन नही जानता कि इस के भीतर कितने अगिनत जानवर और कीड़े आदि भरे हुए है । इसे अनेक प्रकार के रोग बहुधा सताते रहते है और बुढ़ापा और मृत्यु इस का परिणाम है । यदि इस के ऊपर खाल नही होती, तो मक्खिया मच्छर और कव्वे आदिक प्रतिक्षण इसे सताते रहते और तनिक भी सास नही लेने देते। इस लिए इस शरीर से प्रीति नहीं करनी चाहिये और आत्मस्वरूप मे लीन होना चाहिये । इस से ही सारे ऐश्वर्य और सब प्रकार के सुख मिल सक्ते है जैसा कि भर्तृहरिजी अपने वैराग्यशतक में लिखते है--
तसादन-तमजरं परमं विकासि तब्रह्म चिन्तय किमेभिरसद्विकल्पः । यस्यानुषङ्गिण इमे भुवनाधिपत्यभोगादयः कृपणलोकमता भवन्ति ।
७ आस्रव भावना । आस्रवशब्दका अर्थ है, कर्मोंका सवन होना, आगमन होना ।