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जो जन्मा सो निश्चय मर है, मृत्युदिवस जब आवै । तीन भुवनमें भी तब ताका, रक्षक कोई न थावै ॥ तातै नो प्रियजनके मरते, शोक करै अधिकाही कर पुकार वे रुदन करैं है, मूढ विजन बन माही ॥१३॥ या जगमाहि अनिष्ट योग अरु,-इष्टवियोग सुजानो । पूर्व पापके फल ये दोनो, इम चेतन ! उर आनो ॥ शोक करै किस हेतु ? नाश कर, पाप, तथा मत रोवै। इष्टवियोग अनिष्टयोगका, जन्म न जातें होवै* ॥१४॥ प्यारि वस्तुके नष्ट हुए भी, शोकारभ तब कीजे । जो हो उसका लाभ, सुयश, सुख; अथवा धर्म लहीजे ।। चारोमे से एक भी न जो, बहु प्रयत्नकर होई ।
तथा शोक-राक्षसवश तब फिर, कौन सुधी जन होई ॥१५॥ एव दिने च मृत्यो , प्राप्ते पुनस्त्रिभुवनेऽपि न रक्षकोऽस्ति । तद्यो मृते सति निजेऽपि शुच करोति, पूत्कृत्य रोदति वने विजने स मूढ ॥१३॥ इष्टक्षयो यदिह ते यदनिष्टयोगः, पापेन तद्भवति जीव पुरा कृतेन । शोक करोषि किमु तस्य कुरु प्रणाश, पापम्य तो न भवतः पुरतोऽपि येन ॥१४॥ नष्टे वस्तुनि शोभनेऽपि हि तदा शोक समारभ्यते, तल्लाभोऽथ यशोऽथ सौख्यमथवा धर्मोथवा स्याद्यदि । यद्येकोऽपि न जायते कथमपि स्फारै प्रयत्नैरपि, प्रायस्तत्र सुधीर्मुधा भवति क शोकोग्ररक्षोवशः ॥१५॥ एकद्रुमे निशि वसन्ति यथा शकुन्ता , प्रात प्रयान्ति सहसा
* मूलका सक्षिप्तानुवाद इस प्रकार हो सकता है
दो. “ योगअनिष्ट जु इष्टक्षय, पूर्व पापफल दोय। .
शोक करै क्या, पाप नश, जातै दोउ न होय ॥"