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________________ अध्यात्म - रहस्य ३६ ही मोहनीय कर्मका भाव समाविष्ट होजाता है, जो कि आत्माका सबसे बड़ा शत्रु है, जिसने आत्माके विकासको रोक रक्खा है और जिसे स्वामी समन्तभद्र "अनन्तदोषाशय - विग्रहो ग्रहो विषंगवान् मोहमयश्चिरं हृदि" जैसे शब्दोंके द्वारा उल्लेखित करते हैं । राग-द्वेषरूप प्रवृत्तिका फल सर्वत्रार्थादुपेदयेपि इदं में हितमित्यधीः । गृह्णन् प्रीयेऽहितमिति श्रयन् दूयेन कर्मभिः २८ 'वस्तुतः राग और द्वेष सर्वत्र उपेक्षाके योग्य होने पर भी, अज्ञानी जीव कमसे प्रेरित होकर 'यह मेरा हित है' ऐसा मानता हुआ किसी वस्तुमें प्रीति (राग) करता और 'यह मेरा हित है' ऐसा समझता हुआ किसी पदार्थ में अप्रीति (द्वेष ) धारण करता है, और इस तरह कर्मोंसे पीड़ित होता है ।' व्याख्या - - राग और द्वेष दोनों बन्धके कारण होनेसे मुमुक्षुओं के द्वारा सदा उपेक्षा किये जाने एवं त्यागनेके योग्य हैं, फिर भी अज्ञानी जीव परपदार्थों में हित-अहित की कल्पना करके किसीमें राग और किमी में द्वेष धारण करते * श्रीरामसेनाचार्यने भी, तत्त्वानुशासनमें, निम्नवाक्यके द्वारा इसी भावको सूचित किया है:"ताभ्यां (राग-द्वेषाभ्यां पुनः कषाया :स्युर्नोकषायाश्च तन्मयाः ।" १ प्रीति करोति । २ पीड्यते । -
SR No.010649
Book TitleAdhyatma Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1957
Total Pages137
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Religion
File Size4 MB
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