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________________ A-NAMAN सन्मति विद्य-कांशमाला (नय) से स्वात्मा ही उस दृष्टि या गुरुवाणीका सद्गुरु है, अतः उसका अन्तर्नाद होवे--सुनाई पड़े। ___ व्याख्या—यहाँ सद्गुरुके दो भेद किये गये हैं, एक व्यवहारगुरु और दूसरा निश्चयगुरु । व्यवहारगुरु वह है जिसकी शब्दावरमयी वाणी उस दृष्टिकी प्राप्सिमें वाहा निमित्त पड़ती है, और निश्चयगुरु अपना आत्मा ही है, जिसका अन्तर्नाद उस दृष्टिके ग्रहणमें अन्तरंग (भीतरी) कारण पड़ता है और जिसके विवेक-विना व्यवहारगुरुका वचन भी अपना कार्य करनेमें समर्थ नहीं होता । इसीसे श्रीपूज्यपादाचार्यने समाधितन्त्रमें कहा है कि परमार्थ से आत्माका गुरु अपना आत्मा ही है, अन्य नहीं है "गुस्रात्माऽऽत्मनस्तस्मानाऽन्योऽस्ति परमार्थतः ।। निसे यहाँ व्यवहारगुरु कहा है वह साक्षात्गुरु तथा परम्परागुरु दोनों रूपमें हो सकता है, उसकी वाणी भी साक्षात् तथा परम्परासे सुनी जानेवाली हो सकती है और वह किसी शास्त्रमें निबद्ध भी हो सकती है। ___ यहाँ स्वात्माके अन्तर्नादकी जो भावना की गई है वह प्रशंसनीय है और अपनेको स्वात्माभिमुखी बनानेमें सहायक है । अन्तरात्माकी आवाज़ अथवा Conscuence की पुकार बहुधा हुआ करती है और वह प्रायः ठीक तथा सन्मार्ग-दर्शक होती है। परन्तु मनुष्य अपने अहंकारादिके
SR No.010649
Book TitleAdhyatma Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1957
Total Pages137
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Religion
File Size4 MB
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