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प्रधान संपादकीय किंचित् प्रास्ताविक .. राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला के ४५ वें अंकके रूपमे प्रस्तुत, वस्तुरनकोश की एक प्राचीन प्रति, हमको जेसलमेरके जैन ग्रन्थ भंडारोंका अवलोकन करते समय, सन् १९४२ मे, दृष्टिगोचर हुई । उस प्रतिका केवल अन्तिम पत्र नहीं मिला था, जिसमे शायद लेखकके समय आदिका निर्देश किया गया होगा। बाकी कृतिका ग्रन्थपाठ प्रायः पूर्ण था। ग्रन्थका विषय उपयोगी और नूतन मालूम दिया, इस लिये हमने उसकी प्रतिलिपि करवा ली। बादमें, जब राजस्थान पुरातत्त्व मन्दिर (अब नूतन नाम 'प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान') के लिये, राजस्थानमे प्राप्त प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थों का संग्रह कार्य हमारे निर्देशनमें आरंभ हुआ, तो उसमें दो-तीन और हस्तलिखित पुरानी प्रतियां इसकी संग्रहीत हो गई।
___ यह रचना अभी तक कही प्रकाशित नहीं ज्ञात हुई और विषयकी दृष्टि से विद्वानोंके लिये एक विशेष अभ्यसनीय रचना मालूम दी, अतः हमने, राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला द्वारा, इसका प्रकाशन करना निश्चित किया; और ऐसे ग्रन्थों के संपादन' कार्यमे पूर्ण उत्साह और प्रावीण्य रखने वाली विदुषी कुमारी डॉ. प्रियवाला शाहाको इसका संपादान कार्य दिया गया।
राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठानके संग्रहके अतिरिक्त, अहमदाबादकी गुजरात विद्या सभाके संग्रहमें तथा डभोईके मुक्ताबाई जैन ग्रन्थ सग्रहमें भी, इसकी प्राचीन प्रतियां उपलब्ध हुई। इस तरह ७ प्राचीन प्रतियोके आधार पर, संपादिका विदुषीने बहुत परिश्रम करके इसका उत्तम संपादन किया है जो तज्ज्ञ विद्वानोको प्रस्तुत ग्रन्थ दृष्टिगोचर होते ही ज्ञात हो सकेगा।
ग्रन्थगत वस्तु नामसे ही ज्ञात होती है। साहित्यकारों, कथाकारो, प्रवचनकारों और उपदेशकोंको वारंवार उपयोगमें आने लायक ऐसे सौ विषयोंके भेदोपमेद और नामावलिका समुचित संग्रह इसमें किया गया है । इस तरह वस्तुविज्ञानका यह एक संक्षिप्त कोश ही है अतः रचनाकारने इसका नाम वस्तुरनकोश ऐसा उचित नाम दिया ज्ञात होता है। पर संक्षेपमें इसका नाम रनकोश भी बहुतसी प्रतियोंमें लिखा हुआ मिलता है ।
इसका मुद्रणकार्य पूरा हो जाने पर, बादमें हमें पाटणके भंडारोमे भी इसकी कुछ प्राचीन प्रतियां देखनेमें आई जिनमे दो प्रतियां उल्लेखनीय हैं ।
(१) तपागच्छवाले पाटणके भडारमें एक ७ पन्नोंकी प्रति है जिसका अन्तिम पुष्पिकारूप लेख निम्न प्रकार है
"संवत् १५१५ वर्षे कार्तिके श्रीचित्रकूटे व्यलेखि । शुभं भूयात् ॥"
(२) दूसरी प्रति भी इसी भंडारमे सुरक्षित है जिसके १२ पन्ने हैं और निम्न प्रकार पुष्पिकालेख है
"इति श्रीवस्तुविचाररत्नकोशसूत्रशतवस्तुविवरणं समाप्तं ॥ संवत् १५९६ वर्षे मागशीर्षवदि ७ कुजे लेखि ब्रह्मदासकेन ॥"