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________________ अंगारकारक की कथा | ८७ मे उस भीषण ग्रीष्म ने एक बूंद भी पानी नही छोडा था । वर्षा अभी दूर थी। प्रतिदिन की भांति अंगारकारक उस दिन भी घर से अपने साथ पानी लेकर आया था । प्यासे कण्ठ की मांग को पूरा करने के लिए वह थोडी-थोडी देर में एक-दो घुट पानी पीता गया और काम में लगा रहा । उस दिन उसे प्यास बहुत लग रही थी। उसके पास का जल समाप्त होने को आया। जब पर्याप्त लकड़ियां एकत्रित हो गयी तो कोयले बनाने के लिए उसने उनमे अग्नि प्रज्वलित कर दी। वन का वातावरण और भी अधिक तप्त हो उठा । परिणामतः उसकी तृपा तीव्रता के साथ भडक उठी। उसने अपने पात्र को टटोला, पात्र अव रिक्त होकर सूख गया था। कुछ क्षण तो उसने प्यास को भुलावे मे डालना चाहा, किन्तु प्यास के मारे उसका बुरा हाल होने लगा । होठ पपड़ा गये । गला और जीभ सूखने लगी। उसे बडी पीडा होने लगी। तृप्ति की अभिलाषा से उसने आस-पास ही नही, दूर-दूर तक उस वन मे जल की खोज की किन्तु उसे निराश होना पड़ा। जल कही होता, तभी तो उसे मिल पाता । जलाभाव मे उसकी तृषा तो कई गुनी बढ गयी और वह असह्य पीडा से कसमसा उठा। दूर-दूर तक कोई गाँव नहीं था और अब तृषा के कारण ऐसी दुर्बलता ने उसे घेर लिया था कि उससे चला नही जा रहा था। विवश होकर वह एक वृक्ष की छाया मे लेट गया। जल की खोज करते-करते वह अब वन के ऐसे भाग में पहुंच गया था जहाँ कुछ हरियाली थी। वृक्ष के नीचे, शीतल छाया मे उसे कुछ शान्ति अनुभव हुई। कुछ ही पलो मे उसकी आँख लग गई। वह तृषा
SR No.010644
Book TitleMukti ka Amar Rahi Jambukumar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni, Lakshman Bhatnagar
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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