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________________ ७२ | मुक्ति का अमर राही : जम्बूकुमार इस सक्षिप्त, किन्तु अत्यन्त गूढ चिन्तन ने प्रभव के सारे जीवन-दर्शन को ही परिवर्तित कर दिया। उसके हृदय में उथलपुथल होने लगी। उसने अत्यन्त अधीरता के साथ जम्बूकुमार से निवेदन किया कि हे श्रेण्ठि-पुत्र | तुम धन्य हो कि इतनी अल्पायु मे ही जीवन के उचित मार्ग को पहचानने और उसे अपनाने मे समर्थ हो गये हो। तुम्हारे समक्ष में कितना क्षुद्र हूँ। तुम्हारी त्याग-भावना से मुझे बडी प्रेरणा मिली है। मैं अभी से अपने कुकर्मो को त्याग देना चाहता हूँ। क्या मैं आत्मोत्थान के लिए साधना का मार्ग नहीं अपना सकता ? हे श्रेष्ठि-पुत्र । तुमने अपने जीवन को तो सफलता की ओर उन्मुख कर लिया हैं, तनिक इस पतित जन को भी कल्याण का मार्ग बताओ, मुझे भी ज्ञान दो। मैं अपने जीवन को सफल बना लेने के लिए सब कुछ करने को तत्पर हूँ। मैं इस कुत्सित जीवन को त्याग ही चुका हूँ । अब मुझे नयी दिशा दो। चोर प्रभव के इन हार्दिक उद्गारो से जम्बूकुमार को आन्तरिक आह्लाद का अनुभव हुआ । उन्होने प्रभव को अत्यन्त प्रभावकारी रूप मे प्रतिबोधित किया। सासारिक विषयो से विरक्त होकर प्रभव का मन जिन-शासन मे प्रवृत्त होने लगा। प्रभव और उसके दल के सभी सदस्यो ने जम्बूकुमार के समक्ष प्रवजित होकर साधु-जीवन अगीकार करने की अभिलाषा प्रकट की । जम्बूकुमार ने प्रभव और उसके सहयोगियो की इस सद्प्रवृत्ति के लिए प्रशसा की और उनके भावी जीवन के स्वरूप के चयन के लिए प्रसन्नता व्यक्त की। प्रभव का दल तो कृतकृत्य हो उठा । अत्यन्त आभार
SR No.010644
Book TitleMukti ka Amar Rahi Jambukumar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni, Lakshman Bhatnagar
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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