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७० | मुक्ति का अमर राही : जम्बूकुमार
गया । तुरन्त ही अपने आप को संभाल कर जम्बू के समक्ष आकर प्रभव ने कहा कि हे श्रेष्ठि-पुत्र तुम धन्य हो, विद्या-निष्णात हो। मैं अपना परिचय तो बस इतना ही दे देना पर्याप्त समझता हूँ कि मुझे आमेर नरेश का पुत्र प्रभव' कहा जाता है। पिता से निष्कासित होने के कारण चौर्यकर्म मे प्रवृत्त हो गया हूँ। इससे मेरा शेष परिचय स्वत: ही स्पष्ट हो गया होगा। श्रेष्ठिपुत्र ! मैं यह रहस्य जान लेना चाहता हूँ कि तुम पर अवस्वापिनी विद्या का प्रभाव क्यो नही हआ। अवश्य ही तुम असाधारण और पहुंचे हुए पुरुष हो। मैं तुम्हार पिता का सारा धन पुन यथास्थान रखवा देता हूँ, रच मात्र भी अपने साथ नही ले जाऊँगा। लेकिन मेरा एक अनुरोध तुम से है। अपनी मित्रता का हाथ मेरी ओर बढ़ाओ । सुनो, मैं अवस्वापिनी विद्या जानता हूँ, वह मैं तुम्हे सिखा देता है। तालो के खुल जाने की विद्या भी मैं तुम को सिखा दूंगा। बदले मे तुम भी मुझ पर कृपा करो। मुझे स्तम्भिनी और मोचनी विद्याएं सिखा दो, जिनके तुम ज्ञाता हो । मैं तुम्हारा बड़ा आभारी रहूंगा और मेरी विद्याएं भी तुम्हारे लिए बडी लाभकारी तथा उपयोगी सिद्ध होगी।
शान्त भाव के साथ जम्बूकुमार प्रभव की सारी बाते सुनते रहे । तत्पश्चात् अत्यन्त तटस्थतापूर्वक उन्होने उत्तर दिया कि भाई प्रभव । मुझे तुम्हारे प्रस्ताव मे कोई रुचि नही । मैं तुम्हारी इन कलाओ और विद्याओ को सीखकर क्या करूंगा। मैं तो प्रात होते ही समस्त सम्पदामो को त्याग कर, जागतिक सम्बन्धो को विच्छिन कर प्रवृजित हो जाऊँगा । माया-मोह से मेरा मन विरक्त