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________________ विवाह एव पत्नियो को प्रतिबोध | ६७ से कष्टपूर्ण जीवन का वरण क्यो कर रहा हूँ ? सो, वस्तुस्थिति यह है कि इन दोनो प्रकार के जीवन में से किसे छोडूं, किसे अपनाऊँ--यह अन्तर्द्वन्द्व मेरे मन मे बहुत पहले ही छिड़ चुका है। उस द्वन्द्व के परिणामस्वरूप में इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि भौतिक और अवास्तविक सुख सारहीन है, थोथे है और छलावे मात्र हैं। ये दारुण कष्टो को निमन्त्रित करते है। अत. मैंने अनन्त सुख, सन्तोष और शान्ति को अपना लक्ष्य बनाया है । उस लक्ष्य तक पहुंचने के लिए सयम का ही एकमात्र मार्ग है । उसे अपनाने के लिए गृह-त्याग आवश्यक है। मेरे लिए अज्ञान के समस्त आवरण हट गये है और माया-मोह, विषय-वासनादि सभी मेरे लिए अब अपने वास्तविक स्वरूप में प्रकट हो गये है । उनके घोर दुष्परिणामो से भी मैं अवगत हो गया हूँ। अत इनके फन्दे मे ग्रस्त होकर मैं आत्महानि नहीं करना चाहता । अब तो दीक्षा ग्रहण कर साधु-जीवन अपना लेना ही मेरा प्रथम चरण होगा। मैं इस निश्चय पर अटल हूँ और किसी को मुझे इस निश्चय को डिगाने का प्रयत्न करना भी नहीं चाहिए । अब तक रात्रि उतर आयी थी। वातावरण नीरव हो गया था । जम्बूकुमार अपनी नव-वधुओ को प्रतिबोध प्रदान कर रहे थे। उस नीरवता मे जम्बूकुमार के एक-एक शब्द का गूढ़ अर्थ स्वत ही स्पष्ट होता चला जा रहा था। वधुएँ चित्रलिखित सी शान्त और चेष्टाहीन अवस्था मे अपने पतिदेव के कथन को हृदयगम कर रही थी। इस मधुराका का भी एक विलक्षण ही स्वरूप था।
SR No.010644
Book TitleMukti ka Amar Rahi Jambukumar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni, Lakshman Bhatnagar
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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