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________________ गृहत्याग का निश्चय एवं विवाह-स्वीकृति | ५५ आठ श्रेण्ठि-कन्याओ के साथ तुम्हारे पिताजी ने तुम्हारा विवाह निश्चित किया है, उन्होने अपनी ओर से स्वीकृति भी दे दी है। कन्या पक्ष विवाह की तैयारियां कर रहे है । ऐसी स्थिति मे यदि तुमने दीक्षा ग्रहण कर ली तो विवाह कैसे सम्भव होगा । और ऐसी अवस्था मे क्या तुम्हारे पिताजी का अपयश नही होगा कि उन्होंने अपने वचन का पालन नहीं किया। क्या उनकी धर्मप्रियता, उनकी सम्पन्नता, उनके सदाचार, उनके सद्व्यवहारादि पर यह एक घटना ही पानी नही फेर देगी। फिर अपमानित जीवन ही हमारे लिए शेष रह जायगा। मैं तो उसकी कल्पना मात्र से सिहर जाती हूँ। तुम्हारे पिताजी को भी...........। नही....नही....। नही माँ ऐसा नही होगा । अबकी बार जम्बूकुमार आन्तरिक मनोभावो के आवेश मे बीच मे बोल उठे । वे कहने लगे कि माँ । यदि मेरा विवाह टल ,जाने मात्र से ऐसी भयकर स्थिति उत्पन्न हो सकती है, तो मैं उसे कदापि उत्पन्न नही होने दूंगा । आप मेरे लिए प्रथमत पूजनीय है, मैं आपके लिए किसी भी प्रकार अहित का निमित्त नही वनूंगा। तीव्र मनोवेगो और अन्तर्द्वन्द्व के कारण उनके भाल पर स्वेद कण झलकने लगे। उनके मन मे दो विरोधी विचारो के मध्य सघर्ष छिड गया था । एक पक्ष था उनके सकल्प का, दूसरा पक्ष था विवाह बन्धन मे बंधकर माता-पिता की प्रसन्नता ही नही, उनकी प्रतिष्ठा की रक्षा करने का । इन दोनो परस्पर विरोधी पक्षो का एक साथ निर्वाह असम्भव था । दोनो मे से किसे त्याज्य समझे, किस अपनावे ! एक का त्याग मानव देह धारण के इस सुयोग को ही निष्फल कर
SR No.010644
Book TitleMukti ka Amar Rahi Jambukumar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni, Lakshman Bhatnagar
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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