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________________ '. . . . वैराग्योदय : ३३ है । आर्यश्री की इस स्पष्ट विवेचना से जम्बूकुमार का अन्तर जैसे आलोकित हो उठा। ज्ञान के आलोक मे अब उनके लिए तनिक भी धूमिलता शेष नही रही ।, उनके भावी जीवन का स्वरूप निश्चित हो गया और उनके चिन्तन को अब निश्चित दिशा मिल गयी। वे अपने निश्चय को सुदृढ बनाने के प्रयल मे नेत्र निमीलित कर ध्यानमग्न हो गये। उन्होने अब गृह त्यागकर परिव्राजक होने का निश्चय कर लिया था। प्रवचन समाप्ति पर परिषद विजित हुई। समस्त भक्त श्रोतागण पूज्य आर्यश्री के प्रति श्रद्धा व्यक्त करते हुए नमन कर विदा हो गये, किन्तु जम्बूकुमार अब भी आर्यश्री के चरणो मे ध्यानस्थ बैठे थे । इस किशोर को इस स्थिति में देखकर आर्यश्री तनिक चकित रह गये । सोचने लगे कि यह सब बालक कौन है । क्या, चहता है !! अत्यन्त स्नेह के साथ उन्होने सम्बोधित कियावत्स ! वत्स ।। जम्बूकुमार जैसे निद्रा से सहसा जाग उठे । उन्होने पुन. आर्यश्री के चरणो का स्पर्श करते हुए भावविभोर अवस्था में गद्गद कण्ठ से कहा कि स्वामी ! मैं कृतार्थ हो गया। आपके प्रवचनप्रकाश मे मैं अब स्पष्टत देख रहा हूं कि मेरे लिए मात्र साधना का मार्ग ही ग्राह्य है। विगत लम्बे समय से मैं ऊहा-पोह मे था कि अनन्त सुख की प्राप्ति के लिए मुझे क्या करना चाहिए। मानव जाति के क्लेशो को काटने मे मैं किस प्रकार सहायक हो सकता हूँ? प्रभु ! आज अब सब कुछ स्पष्ट हो गया। मैं आपके चरणाश्रय की प्राप्ति से धन्य हो गया हूँ। मैं आप ही की कृपा से धर्म के मर्म को भली-भाँति पहचान गया हूँ। ससार की असारता से
SR No.010644
Book TitleMukti ka Amar Rahi Jambukumar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni, Lakshman Bhatnagar
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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