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________________ २८ | मुक्ति का अमर राही : जम्बूकुमार की दुखद परिस्थितियो से द्रवित होकर वे सोचा करते कि क्या कोई ऐसा मार्ग नही है, जिसका अनुसरण करके मनुष्य का जीवन अनन्त सुख का उपभोग कर सके, ससार की आमारता से उबर सके और शान्ति का लाभ कर सकें || उनके अन्तर्मन मे एक स्वर उठता था कि हां, अवश्य ही ऐसा कोई मार्ग है | आवश्यकता उसे खोजने की है और तब उन्हे अन्त प्रेरणा प्राप्त होती कि मै उस मार्ग को खोजने के विनीत प्रयास मे अपना समस्त जीवन लगा दूंगा | धान्य भाग । यदि मैं ऐसा करने मे सफल हो सका । 1 । जम्बूकुमार ने मन ही मन इस नवीन मार्ग को अपनाने का दृढ संकल्प कर लिया था । इसके साथ ही जीवन की दारुण समस्याओ के प्रश्न और अधिक स्पष्ट होकर उनके समक्ष उभरने लगे । वे जगत् को असार मानकर उससे खिंचे-खिचे से रहने लगे । सासारिक सुखो मे उनका मन नही रमता था । तटस्थ भाव से ही वे पारिवारिक जीवन जीने लगे थे । उन्हे सम्बन्धो के निर्वाह मे रसानुभूति नही होती । एक प्रकार से उनका जीवन एक नवीन मोड की प्रतीक्षा मे था, किसी दिशा - सकेत की टोह मे था । अनेक ऐसे आरम्भिक प्रश्न थे, जिनकी तह मे पहुँचने के लिए उन्हें मर्मज्ञ मार्गदर्शक की आवश्यकता थी। अपने चिन्तन से वे जिस अनुभव तक पहुँचना चाहते थे - उसके लिए सज्ञान और चैतन्ययुक्त पथ-प्रदर्शक की उन्हे तीव्र अपेक्षा थी । सयोग की ही बात है कि उन्ही दिनो आर्य सुधर्मास्वामी का पदार्पण पुन राजगृह मे हुआ । इस समाचार से जम्बूकुमार का मन खिल उठा। उन्हें ऐसा अनुभव होने लगा - मानो अव
SR No.010644
Book TitleMukti ka Amar Rahi Jambukumar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni, Lakshman Bhatnagar
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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