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________________ उपसहार | २०७ इसी प्रकार सुखो की खोज वाह्य जगत मे करते रहते है, सन्तोष उन्हे मिल नहीं सकता है । असफलता की खिन्नता से ही वह घिरा रह जाता है। इसके विपरीत कुछ लोग यथासमय ही यह जान लेते है कि जैसे कस्तूरी स्वय मृगी की नाभि मे होती है उसी प्रकार सच्चा सुख तो आत्मा के भीतर खोजा जाना चाहिए । ऐसे जन वाह्य जगत मे सुखो के पीछे नही भागते, अपितु आत्मिक साधना मे लग जाते है । हम लोग भी उसी स्थिति मे है । तात । वाह्य वासनाओ से हम विरक्त हो गये है अब आगे का चरण वढाने दीजिए । समस्त रागो से परे होकर हमे आत्म कल्याण के मार्ग पर आरूढ होने दीजिए । यात्रा चाहे कितनी ही कठिन होआपके आशीर्वाद उसे अवश्य ही सुगम बना देंगे । अब आप सभी से मेरी विनय है कि कृपा कर हमे दीक्षा-प्राप्ति के लिए अपनी अनुमति प्रदान कर दीजिए। जम्बूकुमार की इन तात्त्विक युक्तियो से श्रेष्ठि-दम्पतियो के अन्त करण गहराई तक प्रभावित हो गये । जम्बूकुमार के कथन मे सारभूत सत्य का अनुभव उन्हे होने लगा उनके अन्तः नेत्र उन्मीलित होने लगे। चित्त मे चैतन्य उभरने लगा और उनके मन मे यह प्रेरणा उमड़ने लगी कि इन्हे हमारी ओर से अनुमति प्राप्त हो जानी चाहिए । ये अभिभावकगण सोचने लगे कि इन्हे अब सासारिक जीवन मे रखना सुगम भी नही है । फिर जो लक्ष्य इन्होने चुना है, वह महान है और सुसस्कारयुक्त मनुष्य ही इस ओर आकर्षित हो पाता है । हमारा तो यह परम सौभाग्य है कि ऐसी सन्तति के अभिभावक होने का गौरव हमे प्राप्त हुआ है।
SR No.010644
Book TitleMukti ka Amar Rahi Jambukumar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni, Lakshman Bhatnagar
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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