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________________ २०४ | मुक्ति का अमर राही : जम्बूकुमार के विषय में चर्चा करते हुए वधुओ के समक्ष अपने निश्चय को दोहराया । प्रत्येक वधू ने अपने दृष्टिकोण को प्रस्तुत किया और सभी के विचारो पर पर्याप्त मनोमथन हो चका है। दीर्घ विचार विनिमय के पश्चात वधुएँ मुझसे सहमत हो गयी हैं। उन्हे मेरे विचारो और दृष्टिकोण मे औचित्य प्रतीत होने लगा है और मेरे भावी मार्ग के प्रति उनके मन मे अब कोई विरोध का भाव शेष नही रहा है। जम्बूकुमार के इन शब्दो को सुनकर सब हक्के-बक्के रह गये । माता धारिणीदेवी के मन मे तो एक मथन ही मच गया। वधुएँ भला क्यो कर राजी हो गयी । नहीं, ऐसा नहीं हो सकता । जम्बूकुमार पर वे अपने प्रेम का प्रभाव जमाने में असफल कैसे रह गई । सोचते-साचते उसे तो चक्कर-सा आ गया। पिता ऋषभदत्त को आरम्भ मे तो अपने पुत्र के कथन पर विश्वास नहीं हो रहा था, किन्तु अन्तत उसे विश्वास करना ही पडा, जब पुत्र ने अत्यन्त तटस्थ एव निष्पृह भाव के साथ यह सूचना भी दी कि आठो कुलवधुएँ भी दीक्षा ग्रहण करने को आतुर है और मैंने तदर्थ उन्हे अपनी अनुमति दे दी है । कक्ष मे पूर्ण रूप से सन्नाटा छाया हुआ था । वधुओ के मातापिताओ के मन मे भी घोर निराशा जम कर बैठ गयी । वे कुछ भी नही कह पा रहे थे। तभी जम्बूकुमार पुन बोल उठे कि हम सबने अपने कल्याण का मार्ग अपनाया है और अनन्त सुख, मोक्ष हमारा लक्ष्य है । वे अपने श्वसुरजन को सम्बोधित कर बोले कि
SR No.010644
Book TitleMukti ka Amar Rahi Jambukumar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni, Lakshman Bhatnagar
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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