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________________ सुबुद्धि और राम-राम मित्र की कथा | १८१ सहायता के लिए प्राणो की बाजी लगाने मे भी पीछे नहीं रहता। किन्तु सुबुद्धि के नित्य मित्र ने भी जब अपना कर्तव्य नही निभाया, तो इन पर्वमित्रो से क्या आशा रखी जा सकती थी। विपत्ति का मारा बेचारा सुबुद्धि दर-दर की ठोकरे खाकर सर्वथा हताश हो गया। वनों की ओर लौट जाने के अतिरिक्त उसके पास अब कोई उपाय शेष नही बचा था। वह लुकताछिपता नगर ने बाहर निकल जाना चाहता था, तभी उसे अपने एक राम-राम मित्र का स्मरण हो आया। सहसा उसके मन मे आशा की एक किरण जगमगा उठी । वह लौट पड़ा और शीघ्रता के साथ उस मित्र के द्वार पर पहुंच गया। यह एक सेठ था । खटखटाये जाने पर जब सेठ ने द्वार खोला तो सुबुद्धि को देखकर वह हर्षित हो उठा । स्वागतपूर्वक उसने सुबुद्धि को घर के भीतर लेकर सावधानी से द्वार बन्द कर लिया । आदरपूर्वक उसने सुबुद्धि को आसन दिया और तब वह कहने लगा कि राजा के रुष्ट हो जाने पर मैं आपके लिए बडा चिन्तित था । मैं यह भी जानता हूँ कि राजा का क्रोध अस्थायी है, किन्तु मृत्युदण्ड का जो निर्णय उसने दिया है-उससे यह राज्य तो एक योग्य अमात्य की सदा-सदा के लिए खो देगा। फिर भले ही राजा लाख पछताए, उसका दरबार ऐसे नर-रत्न से सुशोभित नही हो सकता। यही कारण है कि मैं आपके जीवन के प्रति चिन्तित था। कुछ ही समय मे सब कुछ ठीक-ठाक हो जायगा-वर्तमान' सकट का चतुराई और धैर्य के साथ सामना करने की ही बात है । आपने यह अच्छा ही किया कि अदृश्य हो गये । अब आप कही नही जायेंगे । मेरा घर ही आप
SR No.010644
Book TitleMukti ka Amar Rahi Jambukumar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni, Lakshman Bhatnagar
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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