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________________ १७४ । मुक्ति का अमर राही : जम्बूकुमार रहना ही अच्छा है। हमारी बात मानले, नही तो एक ही क्षण मे तेरी जीवन-लीला इस प्रकार समाप्त हो जायगी कि तुझे अपनी भूल पर पछताने का अवसर भी मिल नही पायगा । इन भांति-भांति के प्रवोधनो का वाज पर कोई भी प्रभाव नहीं हुआ। आलसी के लिए सत्कर्म और सन्मार्ग की कोई प्रेरणा प्रभावकारी नही हो पाती । वाज मे भी कोई परिवर्तन नहीं आया। वाज के मित्रो का विचार सही था । एक दिन शेर के दाँतों मे से माँस निकालने मे बाज व्यस्त था। किसी दाढ मे मांस का कुछ वड़ा टुकडा फंसा हुआ था। वह उसे निकालने का प्रयत्न कर रहा था, लेकिन टुकड़ा बड़ी मजबूती से फंसा हुआ था । और बार-बार वह उसकी चोच की पकड़ से छूट जाता था । वह उसका मोह भी नही त्याग पा रहा था, टुकडे का असामान्य आकार उसके लोभ को भडका रहा था । अव की वार जव उसने अपनी चोंच का प्रहार भरपूर शक्ति से किया तो दुर्भाग्यवश चोच गेर के जबड़े में जा लगी। शेर चौक कर उठ बैठा । बाज का तो काल ही जाग पडा । शेर का क्रोध प्रचण्ड हो गया । उसने देखा कि एक बाज पास बैठा थर-थर काँप रहा है तो उसके हृदय का प्रतिहिंसा का भाव और भी प्रवल हो उठा। वह इस उद्दण्ड पक्षी को कैसे क्षमा कर देता ! एक ही प्रहार मे उसने बाज का काम तमाम कर दिया। ___ अपनी इस कथा को समाप्त कर रूपश्री अपने प्रयोजन स्पष्ट करने के लिए कहने लगी कि कुमार ! वाज को अकाल मृत्यु का ग्रास इस कारण बनना पड़ा कि उसने अपनी शक्ति, क्षमता और
SR No.010644
Book TitleMukti ka Amar Rahi Jambukumar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni, Lakshman Bhatnagar
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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