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१५६ / मुक्ति का अमर राही : जम्बूकुमार
हुआ था, किन्तु उस प्रात काल जब उसे सूचना दी गयी कि गत रात्रि विनीत को भी चुरा लिया गया तो वह दुख से भर उठा। राजा को' विनीत से अत्यन्त लगाव था। वह स्वय एक अन्य तीव्रगामी अश्व पर आरूढ होकर विनीत की खोज मे चल पड़ा। नगर के बाहर निकल कर राजा कुछ ही मार्ग तय कर पाया था कि उसे उस स्थल पर विनीत चुपचाप खडा दिखायी दिया जहाँ से जगल का बीहड रास्ता शुरू होता था। अपने स्वामी को देख कर अश्व प्रसन्नता के मारे हिनहिनाने लगा। राजा भी अपने प्रिय अश्व को सुरक्षित पाकर हर्पित हुआ । राजा ने देखा कि उमके गले की रस्सी टूट कर छोटी सी रह गयी है, उसके गर्दन के केश भी अस्त-व्यस्त हो रहे हैं। विनीत की स्निग्ध पीठ पर एक-दो बेत के चिह्न भी उभर आये थे। यह देखकर राजा को यह अनुमान लगा लेने में कोई विलम्ब नही हुआ कि इसे कुमार्ग पर घसीटने की बहुतेरी कोशिश की गयी है, किन्तु इसने दृढतापूर्वक इसका विरोध किया है । विनीत की इस सद्प्रवृत्ति के कारण राजा के मन में उसके प्रति स्नेह का भाव कई गुना अधिक गाढा हो गया। अतिशय वात्सल्य के साथ राजा ने विनीत की पीठ को अपने कोमल करतल से सहलाया, उसे प्यार से पुचकारा और स्वामी का यह स्नेह पाकर विनीत कृतार्थ हो गया। कृतज्ञता ज्ञापित करने को वह एक बार फिर जोर से हिनहिनाया । राजा का प्यार भरा सकेत पाकर वह उसके पीछे हो लिया और पुनः अश्वशाला मे पहुंच गया। अपनी सप्रवृत्ति के कारण राजा के मन में विनीत ने विशेष स्थान प्राप्त कर लिया था ।