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________________ सिद्धि और बुद्धि की कथा | १४६ देकर उसने पुन विपत्ति-विदारक देव को प्रसन्न कर लिया। जब अबकी बार देव ने उसे दर्शन दिये तो उसने अत्यन्त विनयपूर्वक गिड़गिड़ाते हुए, हाथ जोडकर प्रार्थना की कि हे प्रभु ! आपने मुझे अपार-अपार वैभव प्रदान कर दिया है। अब धन की लालसा मुझे नही रही । अब तो आप मुझ दासी पर एक कृपा और कर दीजिए । भगवान, मेरा एक नेत्र ज्योतिहीन कर दीजिए । बुद्धि इतना निवेदन कर मौन हो गयी और देव भी 'तथास्तु' कहकर अन्तर्धान हो गये । हे स्वामी | परिणाम तो निश्चित था, नभसेना ने कहा कि बुद्धि को अपनी एक आँख खो देनी पड़ी। किन्तु ऐसा उसने खूब सोच-समझकर किया था। वह भली-भांति जानती थी कि इस बार भी सिद्धि उसकी अपेक्षा दुगुने का वरदान प्राप्त करेगी। कुमार ! उसका अनुमान सत्य ही उतरा। सिद्धि ने मन्त्र के जाप से देव को पुनः प्रसन्न कर लिया था और उसने इस बार भी पूर्व की ही भाँति यह मांगा कि आपने जो बुद्धि को प्रदान किया है, उसका दुगुना मुझे प्रदान कीजिए । देव अपने भक्त की कामना को अस्वीकार करते ही कहाँ है ? उन्होने वरदान दे दिया। परिणामत. बुद्धि की तो एक ही आँख की हानि हुई थी, किन्तु सिद्धि को अपने दोनो ही नेत्र खोने पडे । वह अन्धी हो गयी। तब वह अपने लोभ की प्रवृत्ति को कोसने लगी । अगर वह लालच मे न पडी होती तो उसके लिए जगत् अन्धकारपूर्ण न हुआ होता । किन्तु अब तो किया ही क्या जा सकता था ! वह अन्धी होकर हाहाकर करने लगी । घोर-पछतावे के आवेश मे वह अपने केश नोचने लगी, छाती पीटने लगी,
SR No.010644
Book TitleMukti ka Amar Rahi Jambukumar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni, Lakshman Bhatnagar
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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