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________________ १४४ | मुक्ति का अमर राही : जम्बूकुमार आपको वैभव, सुख-सुविधाओ और मान सम्मान की प्राप्ति हुई है। जव स्वेच्छा से आप इन परिस्थितियो का निर्माण नही कर पाये हैं, तो फिर स्वेच्छा से इनका परित्याग करने पर क्यो कटिवद्ध हैं। इनका उपयोग करते हुए जीवन को सुखमय बनाने का आपका स्वयसिद्ध अधिकार है । स्वामी | इन सुखो से विमुख होना अनुचित ही नही, व्यर्थ भी है। पूर्व के शुभ कर्मों का सुफल भोगे विना ही आप पुन नवीन शुभ कर्मों में व्यस्त हो जाना चाहते है । क्या इसका यह अर्थ नही कि स्वामी | आप शुभफलों का पुज एकत्रित कर लेना चाहते है ? और क्या इस सग्रह की प्रवृत्ति से लोभ का हानिकारक दुर्गुण आपके मानस को दूपित नही कर रहा है ? फिर आप भावी मगल की कल्पना भी कमे कर पा रहे हैं ? लोभ ने किसी का भी भला नही किया है । इस प्रवृत्ति को आत्म-लाभ के लिए ही त्याग दीजिए । यह तीव्र अमन्तोष आपकी मानसिक शान्ति को नष्ट कर देगा और तब मात्र हाहाकार ही आपके शेष-जीवन मे वच रहेगा। विवेकशील होकर भी आप क्यो हानि के मार्ग पर अग्रसर होना चाहते हैं । अपने इस दुराग्रह को त्याग दीजिए और अपना तथा म सवका जीवन सुखमय बना लीजिए। क्या आपको संसार में कोई प्रकरण ऐसा नही दिखाई दिया जिसमे लोभ और असन्तोष का दुष्परिणाम भयकर अहित सिद्ध होता है ? लगता है आपने सिद्धि बुद्धि की कथा भी कदाचित नहीं सुनी है- अन्यथा इसका प्रभाव आपके चित्त पर अवश्य होता और आपका यह दुराग्रह कभी का छूट गया होता । अपने इस अन्तिम वाक्य का अनुकूल प्रभाव नभसेना को
SR No.010644
Book TitleMukti ka Amar Rahi Jambukumar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni, Lakshman Bhatnagar
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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