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________________ क्षेत्रकुटुम्बी किसान की कथा | १३३ अपने प्रति विश्वास उत्पन्न करने की दृष्टि से क्षेत्रकुटुम्बी ने अपने आचरण में प्रत्यक्षत. परिवर्तन कर लिया। कुछ ही दिनो मे उसने गाँव मे एक भव्य मन्दिर निर्मित कराया। इस मन्दिर में वह नित्य कई-कई बार जाता। भजन कीर्तन होते, उनमे वह सम्मिलित होता, पूजा-आरती होती, प्रसाद वितरित होता । व्यवहार में भी वह बहुत कोमल हो गया। परिणामत. लोगो का अविश्वास का भाव धीरे-धीरे कम होने लगा। क्षेत्रकुटुम्बी का पर्याप्त मान-सम्मान होने लगा और वह क्षेत्र का प्रतिष्ठित व्यक्ति समझा जाने लगा। हे स्वामी ! जगत मे सत्य पर आवरण सदा-सदा के लिए नही रह पाता-यह कहते हुए कनकसेना ने इस सिद्धान्त का विवेचन किया कि प्रत्येक चातुर्य और कौशल को एक-न-एक दिन परास्त होना ही पड़ता है-जब समस्त आवरण हट जाता है और स्थिति अपने वास्तविक रूप में प्रकट हो जाती है। क्षेत्रकुटुम्बी के साथ भी यही घटित हुआ। उसके जीवन मे एक रात्रि ऐसी आयी थी जिसने उसे धनाढ्य बना दिया था और फिर एक रात्रि ऐसी भी आयी जिसने उसकी समस्त सम्पत्ति मान-प्रतिष्ठा आदि सब कुछ छीन लिया । इस रात्रि मे भी वह अपनी फसल की रखवाली कर रहा था और शख फूंकता जा रहा था । सयोग से चोरो का वही समूह पुन उधर से निकला । इन लोगो ने पहले की ही भांति शखध्वनि सुनी तो चकित रह गये । इस बार किसी कारण की कल्पना करने का कोई आधार नही था। वे सोचने कि उस वार जव भयभीत होकर हम सारा धनादि छोडकर भाग
SR No.010644
Book TitleMukti ka Amar Rahi Jambukumar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni, Lakshman Bhatnagar
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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