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________________ ७ क्षेत्रकुटुम्बी किसान की कथा । कनकसेना का प्रयत्न पद्मसेना के गर्व को गलित होते देखकर जम्बूकुमार की अन्य पत्नी कनकसेना का चातुर्य उत्तेजित हो उठा। कनकसेना ने तीखे शब्दो मे पद्मसेना की हार के विषय मे अपना पूर्व विश्वास व्यक्त किया और कहने लगी कि स्वामी को गृहस्थ-धर्म मे प्रवृत्त करने का श्रेय तो मेरे ही भाग्य मे है, फिर भला पद्मसेना सफल हो ही कैसी सकती थी। मैं कुमार को देखते-ही-देखते उनके व्रत से हटा देती हूँ। कनकसेना यह कहती हुई कुमार के समक्ष आ उपस्थित हुई और प्रबोधन के स्वर में बोली कि हे प्रिय स्वामी ! तनिक मेरे कथन की ओर भी ध्यान दीजिए । यह सत्य है कि आत्मा की उन्नति एक श्रेष्ठ स्थिति है, किन्तु इस उन्नति के सर्वोच्च शिखर पर क्या कोई एकबारगी ही पहुंच सकता है। क्रमश ही तो इस मार्ग पर एक-एक चरण अग्रसर हुआ जा सकता है । फिर आप सब कुछ त्याग कर अनायास ही उस स्थिति को प्राप्त कर लेने के अभिलाषी क्यो हो गये है ? आप तो विवेकशील है-मुझे यह कहने की आवश्यकता ही प्रतीत नही होती कि इस प्रकार का दुस्साहस करने वालो को सफलता के स्थान पर, प्राप्त होती है-वेदना, निराशा और आत्मिक पीडा । मेरा मन्तव्य तो हे स्वामी ! यही है कि लक्ष्य-प्राप्ति के लिए इतनी
SR No.010644
Book TitleMukti ka Amar Rahi Jambukumar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni, Lakshman Bhatnagar
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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