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________________ १२६ | मुक्ति का अमर राही : जम्बूकुमार निहारा । उसके श्रीहत मुखमण्डल पर मानसिक डगमगाहट के लक्षण झलकने लगे थे । इस उपयुक्त अवसर का लाभ उठाते हुए कुमार ने अपना दृष्टिकोण पुन व्यक्त किया । उन्होने कहा कि पद्मसेना | तुम मुझे विद्युत्माली के मार्ग पर बढ़ने की प्रेरणा दे रही हो, किन्तु मैं मेघमाली के मार्ग के लाभो को हृदयंगम कर चुका हूँ । सब कुछ समझ बूझ कर मैं आत्म-हानि की ओर कैसे अग्रसर हो सकता हूँ । सयम और साधना का मैं वरण कर चुका हूँ । उसके विरोधी सासारिक सुखों को त्यागने पर में दृढप्रतिज्ञ हूँ । तुम भी भला मेरा अहित तो कैसे चाहोगी । अतः तुम्हे चाहिए कि मेरे मार्ग मे अवरोध उपस्थित न करो । पद्मसेना यह एक खरा सत्य है कि सासारिक भोगो के प्रलोभन में पड़कर जो व्यक्ति अपने व्रत से डिग जाता है, संयम से च्युत हो जाता है उसके लिए लौकिक-पारलौकिक कोई भी सुख सुलभ नही हो पाता । वह पतन ही पतन की ओर जाता है। और जो असामान्य और वास्तविक सुख को, आत्मोत्थान को अपना लक्ष्य मान लेते है और तब ससम, आत्मानुशासन, साधना आदि का दृढ़ता के साथ पालन करते हैं, अनुरक्ति और मोह से मुक्त हो जाते हैं— उनके लिए यह लक्ष्य सुगम हो जाता है - वह लक्ष्य उसे प्राप्त हो जाता है । यही मानव जीवन की सार्थकता है, इसी मे जीवन की सफलता है । जम्बूकुमार का कथन समाप्त होते-होते पद्मसेना का हृदय कुमार के विचारो से अभिभूत हो उठा था । उसका दर्प हिमखण्ड की भांति गलकर वह गया | मानसिक निष्ठा के साथ वह कुमार के विचारो का समर्थन करने लगी और उसको मन-ही-मन इस
SR No.010644
Book TitleMukti ka Amar Rahi Jambukumar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni, Lakshman Bhatnagar
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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