SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 113
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सुखलोलुप कौए की कथा | १०१ समुद्रश्री । मैं अपने इस कथन को एक दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट और पुष्ट करता हूँ । बहुत समय पूर्व एक सघन वन मे एक बलिष्ट और मदोन्मत्त हाथी निवास करता था । वानस्पतिक वैभव से सम्पन्न उम कानन मे गजराज को बिना ही विशेष परिश्रम के आहार की सहज उपलब्धि हो जाया करती थी । अति स्वच्छ, शीतल पवन के स्पर्श से वह पुलकित रहा करता था । मनोनुकूल वनस्पतियो का आहार करके स्वच्छ सरोवर का शीतल जल पी लेने पर हाथी को जब तृप्ति की अनुभूति होने लगती तो वह घोर स्वर के साथ ऐसा चिघाडने लगता था कि समस्त वन प्रान्त ही काँप उठता था । दिशाएँ प्रतिध्वनियों से भर जाती थी । साधारण वन्य प्राणी बेचारे थरथराने लगते थे । इस गजराज को अपनी विशाल काया और शक्ति का बड़ा दर्प था और वन के पशु-पक्षी सदा भय के मारे उससे दूर ही रहा करते थे । वे उसकी परछाई से भी आतकित रहते थे । समुद्रश्री ! जीवन तो नश्वर है । जो जन्म लेता है, एक दिन अवश्य ही उसे मृत्यु का ग्रास होना पडता है । परम बलवान प्राणी भी मृत्यु पर विजय प्राप्त नही कर सकता- -यह ध्रुव सत्य है । जम्बूकुमार ने कथा को अग्रसर करते हुए कहा कि एक दिन उम गजराज की इहलीला भी समाप्त हो गयी । मदमाती गति वाला वह विशाल शरीर अब स्पन्दनहीन हो, भूलुण्ठित था । हाथी की मृत्यु से पशु-पक्षियो को बडी राहत मिली । अभयपूर्वक उन्होने पहली बार चैन की साँस ली। उनके मुक्त विचरण के लिए --
SR No.010644
Book TitleMukti ka Amar Rahi Jambukumar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni, Lakshman Bhatnagar
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy