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५-१-६० आज हम एक शिव मन्दिर मे ठहरे थे । हमारे लिए मन्दिर, मस्जिद, चर्च, गुरुद्वारे और उपाश्रय का कोई भेद नहीं है । जहा भी जगह मिल जाती है वही ठहर जाते हैं। हा जहा जाते है वहा की सभ्यता का पूरा ख्याल रखते हैं। आज भी आचार्य श्री शिव-मूर्ति को बचाकर बैठे थे । हम भी इस प्रकार बैठे थे जिससे प्रतिमा को पीठ नही लगे। __ यहा पहुचते ही आचार्य श्री ने पातञ्जल योग-दर्शन को कण्ठस्थ करना प्रारभ कर दिया । बहुत सारे लोग समझते हैं, अवस्था पक जाने के वाद कण्ठस्थ नहीं हो सकता। पर आचार्य श्री को यह मान्य नहीं है और न ही उन्हे यह सकोच है कि एक प्राचार्य होकर भी वे साधारण बाल-विद्यार्थियो की तरह कैसे पढ सकते है ? आचार्य श्री बहुधा कहा करते है—मैं तो एक विद्यार्थी हू । आज वह रूप स्पष्ट दीख रहा था। शांनार्जन के बारे मे आचार्य श्री का निश्चित मत है कि बिना ज्ञान को कण्ठस्थ किए कोई भी व्यक्ति पारगामी विद्वान् नही बन सकता । आज कल की शिक्षा-शैली मे ज्ञान का बोझ बढाना-कण्ठस्थ करना आवश्यक नही समझा जाता । पर हमारे शासन मे आज भी 'ज्ञान-कठा और दाम अटा' के अनुसार कण्ठस्थ करने की पद्धति पर बहुत ही बल दिया जाता है। इसी का परिणाम है कि प्राचार्य श्री ने अपने शिक्षण काल मे २१ हजार पद्य प्रमाण ज्ञान-कोष कण्ठस्थ कर लिया था। जिसे आज भी वे दुहराते रहते है । हम लोगो पर भी इसका प्रतिविम्ब तो पडता ही है । इसीलिए तेरापथ-सघ मे प्रत्येक सदस्य के अपनी योग्यतानुरूप कण्ठस्थ अवश्य मिलेगा।