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हुई थी आषाढ़ी पूनम को। प्रस्तुत पुस्तक में पौष से चैत्र मास तक की घटनाओं का सकलन है।
अदृष्ट को देखना कठिन है तो दृष्ट को देखना कठिनतर । दूर को देखना कठिन है तो निकट को देखना कठिनतर। किसी मनीषी ने कभी लिखा था-अदृष्ट पश्य, दूरं पश्य । पर आज का मनीषी लिखना चाहता है-दृष्ट पश्य, निकट पश्य । लेखक ने दृष्ट को देखने का व निकट को निहारने का प्रयल किया है, यह अवश्य ही दुर्गम कार्य है। श्रद्धा का सेतु सम्प्राप्त हो तो दुर्गम भी सुगम बन जाता है । लेखक का अन्तस्तव श्रद्धा से प्राप्लावित है। वह आचार्यश्री के प्रति जितना श्रद्धानत है, उतना ही उनके आदर्शों के प्रति श्रद्धालु है । इसलिए उसने जनवंद्य पौर जनता को पास-पास रखा है और वह दोनो के बीच अपने को उपस्थित पाता है । यह मध्य-स्थिति ही शब्द-जगत् में प्रस्तुत पुस्तक है।
जन-जन के बीच का प्रथम भाग सं० २०१५ मे प्रकाशित हुआ था। यह उसका द्वितीय भाग है । अपनी मनोरमता और आचार्यश्री की चरण-रश्मियो के प्रतिविम्वन से यह पुस्तक सहज ही जन-प्रिय और जन-भोग्य होगी।
-मुनि नथमल वि० स० २०२१, पौष कृष्णा कुचेरा (राजस्थान)