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awan womer morrow mannmann al ही नित्य की जाती हैं और तभी वे आत्मोत्क
पंकी साधक होती हैं। अन्यथा, लौकिक लाभ, पूजा-प्रतिष्ठा, यश, भय, रूढि आदिके वश होकर ।। 0 करनेसे उनके द्वारा प्रशस्त अध्यवसाय नहीं बन
सकता और न प्रशस्त अध्यवसायके विना ५) संचित पापों अथवा कर्माका नाश होकर आत्मीय गुणोंका विकास ही सिद्ध किया जा सकता है। अतः इस विषयमें लक्ष्यशुद्धि एवं भावशुद्धिपर दृष्टि रखनेकी खास जरूरत है, जिसका सम्बन्ध विवेकसे है। विना विवेकके कोई भी क्रिया यथेष्ट फलदायक नहीं होती, और न विना विवेककी भक्ति सद्भक्ति ही कहलाती है।
भक्तिपाठ इस भक्तिक्रियाको चरितार्थ करने--अर्थात् इसके द्वारा पुण्यकी प्राप्ति, प्रापका नाश और आत्मगुणोंका विकाश सिद्ध करनेके लिये समयसमयपर अनेक भक्तिपाठों अथवा स्तुतिपाठोंकी। seDDESEDDESOSODED
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