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जैनाचार्योंका शासनभेद तब यह स्पष्ट है कि श्रीपार्श्वनाथादि दूसरे तीर्थकरोंके मूलगुण भगवान् महावीरद्वारा प्रतिपादित मूलगुणोंसे भिन्न थे और उनकी संख्या भी अहाईस नहीं हो सकती-दसकी संख्या तो एकदम कम हो ही जाती है; और भी कितने ही मूलगुण इनमें ऐसे हैं जो उस समयके शिष्योंकी उक्त स्थितिको देखते हुए अनावश्यक प्रतीत होते हैं। वास्तवमें मूलगुणों और उत्तरगुणोंका सारा विधान समयसमयके शिष्योंकी योग्यता और उन्हें तत्तत्कलीन परिस्थितियोंमें सन्मार्गपर स्थिर रख सकनेकी आवश्यकतापर अवलम्बित रहता है। इस दृष्टि से जिस समय जिन व्रतनियमादिकोंका आचरण सर्वोपरि मुख्य तथा आवश्यक जान पड़ता है उन्हें मूलगुण करार दिया जाता है और शेषको उत्तरगुण । इसीसे सर्व समयोंके मूलगुण कभी एक प्रकारके नहीं हो सकते । किसी समयके शिष्य संक्षेपप्रिय होते हैं अथवा थोड़े ही समझ लेते हैं और किसी समयके विस्ताररुचिवाले अथवा विशेष खुलासा करनेपर समझनेवाले। कभी लोगोंमें ऋजुजड़ताका अधिक संचार होता है, कभी वक्रजड़ताका और कभी इन दोनोंसे अतीत अवस्था होती है । किसी समयके मनुष्य स्थिरचित्त, दृढबुद्धि और बलवान होते हैं और किसी समयके चलचित्त, विस्मरणशील और निर्बल । कभी लोकमें मूढ़ता बढ़ती है और कभी उसका हास होता है । इस लिये जिस समय जैसी जैसी प्रकृति और योग्यताके शिष्योंकी-उपदेशपात्रोंकी-बहुलता होती है उस उस वक्तकी जनताको लक्ष्य करके तीर्थंकरोंका उसके उपयोगी वैसा ही उपदेश तथा वैसा ही व्रत-नियमादिकका विधान होता है । २१ कायोत्सर्ग (ये षडावश्यक क्रिया); २२ लोच, २३ आचेलक्य, २४ अस्नान, २५ भूशयन, २६ अदन्तघर्षण, २७ स्थितिभोजन, और २८ एकभक्त ।