________________
अर्हम्
जैनाचार्योंका शासनभेद
---00:0
प्रास्ताविक निवेदन कछ समय हुआ जब मैंने 'जैनतीर्थंकरोंका शासनभेद' नामका
एक लेख लिखा था, जो अगस्त सन् १९१६ के जैनहितैषीमें प्रकाशित हुआ है * ! इस लेखमें श्रीवट्टकेराचार्यप्रणीत 'मूलाचार' ग्रंथके आधारपर यह प्रदर्शित और सिद्ध किया गया था कि समस्त जैन तीर्थकरोंका शासन एक ही प्रकारका नहीं रहा है। बल्कि समयकी आवश्यकतानुसार-लोकस्थितिको देखते हुए उसमें कुछ न कुछ परिवर्तन ज़रूर होता रहा है। और इस लिये जिन लोगोंका ऐसा खयाल है कि जैन तीर्थकरोंके उपदेशमें रंचमात्र भी भेद या परिवर्तन नहीं होता--जो वचनवर्गणा एक तीर्थकरके मुखसे विरती है वही, अँची तुली, दूसरे तीर्थकरके मुँहसे निकलती है, उसमें ज़रा भी फेरफार नहीं होता-वह खयाल निर्मूल जान पड़ता है। साथ ही, मूलगुण-उत्तरगुणोंकी प्ररूपणाके कुछ रहस्यका दिग्दर्शन कराते हुए, यह भी बतलाया था कि सर्व समयोंके मूल-गुण कभी एक प्रका
* यह लेख कुछ परिवर्तन और परिवर्धनके साथ, अन्तमें बतौर परिशिष्टके दे दिया गया है।