SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 64
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गुणवत और शिक्षाबत क्यों रक्खा है, जबकी शिक्षाव्रत अभ्यासके लिये नियत किये गये हैं और सल्लेखना मरणके सन्निकट होनेपर एक बार ग्रहण की जाती है, उसका पुनः पुनः अनुष्ठान नहीं होता और इसलिये उसके द्वारा प्रायः कोई अभ्यासविशेष नहीं बनता । दूसरे, प्रतिमाओंका विषय अपने अपने पूर्वगुणोंके साथ क्रम-विवृद्ध बतलाया गया है। अर्थात् , उत्तर-उत्तरकी प्रतिमाओंमें, अपने अपने गुणोंके साथ, पूर्व-पूर्वकी प्रतिमाओंके सारे गुण विद्यमान होने चाहिये । बारह व्रतोंमें सलेखनाको स्थान देनेसे 'व्रतिक' नामकी दूसरी प्रतिमा उसकी पूर्ति आवश्यक हो जाती है। विना उस गुणकी पूर्तिके अगली प्रतिमाओंमें आरोहण नहीं हो सकता और सलेखनाकी पूर्तिपर शरीरकी ही समाप्ति हो जाती है, फिर अगली प्रतिमाओंका अनुष्ठान कैसे बन सकता है ? अतः सल्लेखनाको शिक्षाबत मानकर दूसरी प्रतिमा रखनेसे तीसरी सामायिकादि प्रतिमाओंका अनुष्ठान अशक्य हो जाता है और वे केवल कथनमात्र रह जाती हैं, यह बड़ा दोष आता है। इस पर विद्वानोंको विचार करना चाहिये । इसी लिये प्रसंग पाकर यहाँ पर यह विकल्प उठाया गया है। सम्भव है कि ऐसे ही किन्हीं कारणोंसे समन्तभद्र, उमास्त्राति, सोमदेव, अमितगति और स्वामिकार्तिकेयादि आचार्योंने सल्लेखनाको शिक्षाव्रतोंमें स्थान न दिया हो, अथवा वसुनन्दी आदिकका सल्लेखनाको शिक्षाबत करार देनेमें कोई दूसरा ही हेतु हो। उन्हें प्रतिमाओंके विषयका अपने पूर्व गुणोंके साथ विवृद्ध * श्रावकपदानि देवैरेकादश देशितानि येषु खलु । स्वगुणाः पूर्वगुणैः सह तिष्ठन्ते क्रमविवृद्धाः ॥ -रत्नकरण्डके, समन्तभद्रः ।
SR No.010626
Book TitleJainacharyo ka Shasan bhed
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1929
Total Pages87
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy