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________________ ५४ जैनाचार्योंका शासनभेद रक्खा है, और साथ ही संन्यास (सल्लेखना) को भी शिक्षाबत प्रतिपादन किया है। इसके सिवाय, भोगोपभोगपरिमाणको भी जो उन्होंने गुणव्रत सूचित किया है उसे केवल समन्तभद्रादिके मतका उल्लेख मात्र समझना चाहिये । अन्यथा, गुणव्रतोंकी संख्या चार हो जायगी, और यह मत प्रायः सभीसे भिन्न ठहरेगा। हाँ, इतना जरूर है कि इसमें गुणव्रतसम्बन्धी प्रायः सभी मतोंका समावेश हो जायगा । शिक्षाव्रतोंके सम्बन्धमें आपका मत, कुन्दकुन्दको छोड़कर, उमास्वाति, पूज्यपाद, विद्यानन्द, सोमदेव, अमितगति, समन्तभद्र और स्वामिकार्तिकेय आदि प्रायः सभी आचार्योंसे भिन्न पाया जाता है। (६) श्रीवसुनन्दी आचार्यने, अपने श्रावकाचारमें, शिक्षाव्रतोंके १ भोगविरति, २ परिभोगनिवृत्ति, ३ अतिथिसंविभाग और ४ सल्लेखना, ये चार नाम दिये हैं । यथाः "तं भोयविरइ भणियं पढमं सिक्खावयं सुत्ते ।" "तं परिभोयणिवुत्ति विदियं सिक्खावयं जाणे ।" "अतिहिस्स संविभागो तिदियं सिक्खावयं मुणेयव्वं ।" " सल्लेखणं चउत्थं सुत्ते सिखावयं भणियं ।" इससे स्पष्ट है कि वसुनन्दी आचार्यका शासन, इस विषयमें, पहले कहे हुए सभी आचार्योंके शासनसे एकदम विभिन्न है । आपने भोगपरिभोगपरिमाण नामके व्रतको, जिसे किसीने गुणव्रत और किसीने शिक्षाबत माना था, दो टुकड़ोंमें विभाजित करके उन्हें शिक्षावतोंमें सबसे पहले दो व्रतोंका स्थान प्रदान किया है और भोगविरतिके सम्बन्धमें लिखा है कि उसे सूत्रमें पहला शिक्षाबत बतलाया है। मालूम नहीं वह कौनसा सूत्र-ग्रन्थ है, जिसमें केवल भोगविरतिको प्रथम शिक्षाव्रत
SR No.010626
Book TitleJainacharyo ka Shasan bhed
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1929
Total Pages87
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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