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जैनाचार्योका शासनभेद मालूम होता है कि श्वेताम्बरसम्प्रदायके आगम ग्रंथोंसे तत्त्वार्थसूत्रकी विधि ठीक मिलानेके लिये ही यह सब खींचातानी की गई है। अन्यथा, उमास्वाति आचार्यका मत इस विषयमें वही मालूम होता है जो इस नम्बर (२) के शुरूमें दिखलाया गया है और जिसका समर्थन श्रीपूज्यपादादि आचार्योंके वाक्योंसे भले प्रकार होता है। और भी बहुतसे आचार्य तथा विद्वान् इस मतको माननेवाले हुए हैं, जिनमेंसे कुछके वाक्य नीचे उद्धृत किये जाते हैं:
दिग्देशानर्थदंडानां विरतिस्त्रितयाश्रयम् । गुणवतत्रयं सद्भिः सागारयतिषु स्मृतम् ।। आदौ सामायिकं कर्म प्रोषधोपासनक्रिया। सेव्यार्थनियमो दानं शिक्षाबतचतुष्टयं ॥
-यशस्तिलके, सोमदेवः। ( यहाँ 'सेव्यार्थनियम' से उपभोगपरिभोगपरिमाणका और 'दान' से अतिथिसंविभागका अर्थ समझना चाहिये। )
स्थवीयसी विरतिमभ्युपगतस्य श्रावकस्य व्रतविशेषो गुणव्रतत्रय शिक्षाबतचतुष्टयं शीलसप्तकमित्युच्यते । दिग्विरतिः, देशविरतिः, अनर्थदंडविरतिः, सामायिक, प्रोषधोपवासः, उपभोगपरिभोगपरिमाणं, अतिथिसंविभागश्चेति ।
-चारित्रसारे, श्रीचामुंडरायः। दिग्देशानर्थदंडेभ्यो विरतिर्या विधीयते जिनेश्वरसमाख्यातं त्रिविधं तद्गुणवतं ॥
-सुभाषितरत्नसंदोहे, अभितगतिः ।