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अणुव्रत और रात्रिभोजनविरति
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इन सब विधि-विधानोंका जैनसिद्धान्तों अथवा महावीर भगवानके शासनके साथ कोई विरोध नहीं है—सबका आशय और उद्देश्य सावद्य कर्मोंको छुड़ानेका है—यह नहीं कहा जा सकता कि अमुक आचार्यने छठे अणुव्रतका विधान करके अथवा मुनियोंके लिये पृथकरूपसे एक नये व्रतकी ईजाद करके महावीर भगवानकी आज्ञाका उल्लंघन किया अथवा उन्मार्ग फैलाया है । ऐसा कहना भूल होगा । महावीर भगवानने सावद्यकमके त्यागका एक नुसखा ( ओषधिकल्प ) बतलाया था, जो उस समय उनके शिष्योंकी प्रकृतिके बहुत अनुकूल था । उनके इस बतलानेका यह आशय नहीं था कि दूसरे समयों में शिष्यों की प्रकृति बदल जानेपर भी ―― उसमें कुछ फेरफार न किया जाय । इसी - लिये उसमें अविरोधदृष्टिसे फेरफार किया गया है और अब भी उसी दृष्टिसे किया जा सकता है । आज यदि कोई महात्मा, वर्तमान देशकालकी परिस्थितियों और आवश्यकताओंके अनुसार अणुव्रतोंकी संख्या में एक नये व्रतकी वृद्धि करना चाहे – अर्थात्, (उदाहरण के तौर पर,
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स्वदेश वस्तुव्यवहार' नामका सातवाँ अणुव्रत स्थापित करे, तो वह खुशीसे ऐसा कर सकता है । उसमें भी कोई आपत्ति किये जानेकी जरूरत नहीं है । क्योंकि अहिंसात्रतकी रक्षा के लिये ( ' अहिंसात्रतरक्षार्थं ' इति सोमदेवः) अथवा पाँचों व्रतोंकी रक्षा के लिये ( 'तेसिं चेव वदाणं रक्खहूं' इति वकेर : ) जिस प्रकार ' रात्रिभोजनविरति ' का विधान किया गया है उसी प्रकार अपरिग्रह — परिमित परिग्रह व्रतकी रक्षा के लिये अथवा अहिंसादिक पाँचों ही व्रतोंकी रक्षा के लिये 'स्वदेशवस्तुव्यवहार ' नामका व्रत बहुतही उपयोगी जान पड़ता है । आजकल इसकी बड़ी जरूरत भी है— विदेशी वस्तुओंके प्रबल प्रचार के कारण मनुष्योंका नाकों दम है, उनमें इतनी जरूरतें बढ़ गई हैं और इतनी विलासप्रियता