________________
३६
जैनाचार्योंका शासनभेद
अणुव्रतका उल्लेख करके उन्होंने फिर आलोकितपानभोजन नामकी, भावना में उसकी उसी तरह सिद्धि नहीं की जिस तरह कि महाव्रतिओं की दृष्टिसे रात्रिभोजनविरति नामके व्रतकी की है । और महा-' व्रतियोंकी दृष्टिसे जो आरंभदोषादिक हेतु प्रयुक्त किये गये हैं उनकी अणुव्रती गृहस्थोंके सम्बन्धमें अनुपपत्ति है— वे उनके नहीं बनतेइसलिये उनसे उक्त विषयकी कोई सिद्धि नहीं होती । मेरी रायमें श्रावकोंके छठे अणुव्रतकी, आलोकितपानभोजन नामकी भावना में कोई सिद्धि नहीं बनती; जैसा कि ऊपर कुछ विशेष रूपसे दिखलाया गया है ।
-
इस संपूर्ण कथनसे यह बात भले प्रकार समझमें आसकती है कि ' रात्रिभोजनविरति ' नामका व्रत एक स्वतंत्र व्रत है । उसके धारण और पालनका उपदेश मुनि और श्रावक दोनोंको दिया जाता है— दोनों से उसका नियम कराया जाता है—वह अणुव्रतरूप भी है और महाव्रतरूप भी । महाव्रतों में भले ही उसकी गणना न हो—वह छठे अणुव्रत के सदृश छठा महाव्रत न माना जाता हो — और चाहे मुनियों के मूलगुणों में भी उसका नाम न हो परंतु इसमें संदेह नहीं कि उसका अस्तित्व पंचमहाव्रतोंके अनंतर ही माना जाता है और उनके साथ ही मूलगुणके तौरपर उसके अनुष्ठानका पृथक् रूपसे विधान किया जाता है, जैसा कि इस लेख के शुरू में उद्धृत किये हुए ' आचासारके ' वाक्य और 'मूलाचार' के निम्नवाक्यसे भी प्रकट है :
" तेर्सि चैव वदाणं रक्खहं रादिभोयणविरत्ती । "
ऐसी हालत में रात्रिभोजनविरतिको यदि छठा महाव्रत मान लिया जाय अथवा महाव्रत न मानकर उसके द्वारा मुनियोंके मूलगुणों में एककी