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जैनाचार्योंका शासनभेद ये तो हुए प्रथम प्रकारके विद्वानोंके उदाहरण, अब दूसरे प्रकारके विद्वानोंके भी कुछ उदाहरण, लीजिये:
६ स्वामीसमन्तभद्राचार्यने, रत्नकरंडकमें रात्रिभोजनविरति' को छठी प्रतिमा बतलाया है, और उससे पहले ग्रंथभरमें कहीं भी रात्रिभोजनके त्यागका विधान नहीं किया है। वे चारों प्रकारके आहारका इसी प्रतिमा त्याग कराते हैं । यथाः--
अन्नं पानं खाद्यं लेां नानाति यो विभावर्याम् । स च रात्रिभुक्तिविरतः सत्वेष्वनुकम्पमानमनाः॥ ७ ब्रह्मनेमिदत्तने भी अपने धर्मोपदेशपीयूषवर्ष ' नामके श्रावकाचारमें, समन्तभद्रके सदृश 'रात्रिभोजनविरति' को ही छठी प्रतिमा करार दिया है और उसी तरहपर चारों प्रकारके आहारका उसमें त्याग कराया है । यथा:--
अन्नं पानं तथा खाद्यं लेह्य रात्रौ हि सर्वदा ।
नैव मुंक्ते पवित्रात्मा स षष्ठः श्रावको मतः ॥ परंतु नेमिदत्तने इससे पहले भी अपने ग्रंथमें रात्रिभोजनका कुछ त्याग कराया है । लिखा है कि 'रात्रिमें यदि सामान्यतया जल, ताम्बूल और औषधका ग्रहण करते हो तो करो परन्तु फलादिकको ग्रहण न करना चाहिये' और इसके समर्थनमें एक प्राकृत वाक्य भी दिया है । यथाः-- ___ "सामान्यतो निशायां च जलं ताम्बूलमौषधं ।
गृह्णन्ति चैव गृह्णन्तु नैव ग्राह्य फलादिकं ॥ यदुक्तं । तम्बोलो सहु जलमुइवि, जो अंथविए मूरि ।
भोग्गासणि फल अहिलसइ, ते किउ दंसणु दूरि ॥"