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___ ४२ भक्तामर स्तोत्र . एक दिव्य दृष्टि २ कल्पाकुरो दारिद्र्याणि - कल्पवृक्ष का अकुर मात्र भी दारिद्र्य का ना
कर सकता है। ३. गजावली हरिशिशु - सिह का बच्चा भी गजपंक्ति का नाश क
सकता है। ४ काष्ठानि वन्हे कण
अग्नि का कण भी काष्ठ समूह का नाश क
सकता है। ५ पीयूषस्य लवोऽपि रोगनिवहे - अमृत की एक बूंद भी रोग समूह का नाश क
सकती है। यद्वत्तथा
उसी प्रकार विभो ते मूर्ति
परमात्मा तेरा स्वरूप त्रिजगति कष्टानि - तीनो जगत के कष्टो का हर्तु क्षम
- नाश करने में समर्थ है। यह तो वैधानिक सिद्धान्त है कि जहाँ तू आ गया, तेरा स्तवन आ गया, तेरी भक्ति गई वहाँ अनादि काल के, जन्म-जन्म के, भव-सततिरूप सन्निबद्ध पाप क्षण मे ही क्षय व प्राप्त होते हैं। हे परमात्मन्। जिसका आत्मा रूपी कोकिल कूजेगा उस कूज मे तेरी कृपा व कूज मिल जायेगी, मिलन का बधन हो जायेगा, बधन मे मुक्ति का मार्ग मिल जायेगा। इ मार्ग पर हमारे कदम बढ़ते जायेगे और मुक्ति का मार्ग प्रस्तुत होता जायेगा। अगर रविवार को वास्तविक स्तोत्र की भूमिका का प्रारभ हो रहा है।
मुनिश्री परमात्मा के साथ Adjust हो गये, Agreement हो चुका है, भक्तपरमात्मा से बध चुका है, बधन से मुक्ति का मार्ग मिल गया है। अब मुक्ति मार्ग पर प्रया के प्रारभ को हम आठवे श्लोक के द्वारा हम मे अनुस्यूत करेंगे।