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प्रभु-मिलन २७ देखिए, जैसे स्वय के गुणो को प्रकट करने का प्रयास किया जाता है, एक बहुत वडा व्यवधान आ जाता है " कल्पान्त काल पवनोद्धत नक्र चक्र ।" कल्प का अन्त याने प्रलयकाल । प्रलय काल का मतलब आरे का विसर्जन काल। यह सामान्य अर्थ है लेकिन इसका विशिष्ट अर्थ भी है।
कौनसा कल्प और कोनसा अन्तकाल है, जिस अन्त काल मे पवन उद्धत होता है । नक्र चक्र का मतलव होता है मगरमच्छ, मत्स्य वगेरह जो कि उस समय ऊपर आयेंगे। एमे विकट समय मे यदि समुद्र को भुजाओ के द्वारा कोई तिरना चाहे तो क्या तिरा जा सकता है? प्रलयकाल की तो बात क्या करें, आज भी भुजाओ के बल पर ऐसे समुद्र को पार नही कर सकते हैं।
अव प्रश्न हे आचार्यश्री ने यहाँ पर "कल्पात " शब्द का प्रयोग क्यो किया ? कोन से कल्पात काल की उनके दिल मे चर्चा थी ? कौन सा पवन हमारे साधना काल में उद्धत होता है? आर कौन से मगरमच्छ आकर हमारी साधना का विध्वस कर देते हैं ? ऐसी जो चीजे हैं उनको यदि आज नाथ लिया जाय तभी हम आगे बढ़ पायेगे अन्यथा हमारी यात्रा यही पर अवरुद्ध हो जायेगी, रुक जायेगी।
एसा मत समझना कि जिनेश्वर की आराधना या उनका मार्ग हमने कभी नही पाया। इस अनन्त जन्म की यात्रा मे कई बार ऐसे काल बीत गये, उनकी सेवा भक्ति पूजा करने का कई बार मौका मिला होगा, लेकिन हमारी यह कमजोरी रही कि हमारे कल्प का जब-जब अन्त काल आता गया, उस उद्धत पवन के सामने, उन उद्धत मगरमच्छा के माना हम स्वयं अपनी भुजाओ के दल पर तेरने के लिये कूद पड़े थे और मगरमच्छों के तु मे ॐ स्वाहा हो गये थे। मुनिश्री को आज गलती महसूस हो रही है और उन्होंने कहापरमात्मा । कई बार तेरी आराधना करके भी न गिर पड़ा हूँ। तेरा जिसने एक बार भी ध्यानपूर्वक मान कर लिया, उसका पुन ससार परिभ्रमण नही हो सकता, इस बात की सम्पूर्ण प्रतीति होने के बावजूद भी इस आत्मा ने कई बार परिभ्रमण किया है। कौन सी गलती हो रही है? कौन सी कमजोरी ह? जिस कमजोरी का इस जन्म ने "भक्तानर "के माध्यम से हमे खोल देनी है। आचार्यश्री के माध्यम से हमें इन समस्याओं की सुलझाना है। कल्प शब्द का प्रयोग हमारे यहाँ कई बार होता है।