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भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि
का कोई भी रहस्य आप से अप्रकट नही है। तीनो कालो की, तीनो लोको की सर्व जीवो की सभी पर्यायो के ज्ञाता हो । आपसे मेरा क्या छिपा है ? मेरे सभी पापो को आप जानते हो। आपको मै क्या अपना परिचय दूँ ? आज कोई प्रतिष्ठित व्यक्ति यदि मुझे पूछ ले कि तू कौन है तो मेरे पास बहुत सारा परिचय है, मै सेठ हूँ, फैक्ट्री का मालिक हूँ, डॉक्टर हूँ, वकील हूँ, बैरिस्टर हूँ, बहुत बडा व्यापारी हूँ। मेरे पास कई तरह के परिचय मौजूद हैं। परमात्मा ये तो आप माग रहे है, आप से क्या छिपा हुआ है मेरा ? इस जन्म की ही नही अपितु जन्म-जन्म की सारी करतूते आप जानते हैं। दुनिया का कोई पाप नही जो मैने छोडा हो । जगत् का कोई व्यक्ति नही जिसके साथ मैने सम्बन्ध नही किया हो। और, यह सब कुछ आप जानते हैं। कितना पुण्य किया, कितना पाप किया, कितनी निर्जरा की, कितना धर्म किया, कितना कर्म किया, कितने सम्बन्ध स्थापित किये, कितने सम्बन्ध बॉधे, कितने बिगाडे, कितने छोड़े, कितने तोडे, कितने खेल खेले । परमात्मा आपसे क्या छिपा है ? बताइये ना । छोड़ दीजिए प्लीज, मेरा परिचय मत मागिये । आपसे कुछ छिपाना भी चाहता नही और परिचय दूँगा तो वह मेरे लिए लज्जाजनक होगा। मै तो आपका परिचय पाकर मोक्ष पाना चाहता हूँ । यद्यपि मेरे लिए यह भी दुरूह हो रहा है।
परमात्मा ने कहा-वत्स । तू मेरा परिचय दे सके या नही दे सके, तू मुझसे परिचित हो सके या नही हो सके, अब मुझे कोई चिन्ता नही । मेरे परिचय की तू चिन्ता मत कर, मै तेरे साथ हूँ, सदा साथ रहूँगा, लेकिन मुझे चिता है कि तू अपने आपको जानता है या नही ? तू अपना परिचय मुझे दे।
अब मानतुगाचार्य को भूल जाइये, और आप आगे बढ़िये, आप भक्त हो, आपको सम्पूर्ण अधिकार है। यह मत सोचिये कि सारी क्षमता मानतुगाचार्य मे ही निहित है। मै यह सोचती हूँ कि जितनी उनमे शक्ति थी, उतनी ही शक्ति हम मे निहित है, लेकिन हम उस शक्ति को उजागर नही कर पाये हैं । " भक्तामर स्तोत्र" का आलम्बन लेकर अपनी अन्तश्चेतना को आज हम जागृत करेंगे। जब तक "कोऽहम् " की आग प्रकट नही होगी, तब तक परमात्मा से तात्त्विक सम्बन्ध सभव नही है । मै कौन हूँ, मै कहाँ से आया हूँ और मै कैसी हूँ, यह सोचना अत्यन्त आवश्यक है।
अनन्तज्ञानी और अनन्तदर्शी को हम अपना परिचय देगे । माध्यम आचार्यश्री का लेंगे। आचार्यश्री हम सब को साथ लेकर चलते हैं। अत आचार्य श्री का परिचय हम सबका परिचय हो जायेगा। भक्त कहता है - प्रभु । बहुत ध्यान देकर सुनिये। यह है मेरा परिचय
बुद्ध्या विनाऽपि विबुधार्चित पादपीठ । स्तोतुं समुद्यतमतिर्विगतत्रपोऽहम् । बालं विहाय जलसस्थितमिन्दुबिम्बमन्यः क इच्छति जन. सहसा ग्रहीतुम् ? ॥३ ॥