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समर्पण १४३ भक्तामर स्तोत्र का अन्तिम श्लोक समर्पण का परम अध्याय है। साधना का यह आखिरी दाव है। चेतना के विकास की अन्तिम परिणति है।
इस अन्तिम श्लोक के प्रारभ के पूर्व, आचार्यश्री के साधना की प्राणतरगों से ऊर्जान्वित अग पर लटकती ४७ वेड़ी के बन्धन टूट चुके हैं। अटूट ऐसी आत्मनिष्ठा सफलता के चरम शिखर तक पहुँच चुकी है। परम पवित्र देहपर्याय म से ति मृत अत्यत पावन भाव तरगे सम्पूर्ण वायुमडल को विशुद्ध बना रही हैं।
यहाँ पर मनीषियो को इस आनदमय वातावरण मे नया चिन्ता, नया बल और नयी शक्ति मिलती है। उन्होने राजा से कहा-महाराज चुनोती का अवसर हो आप अपनी इम कोतूहलप्रिय जनता को मुनिश्री की अन्तिम वेडी खोलो का अवसर दा यदि कोई महानुभाव विना शस्त्र, विना स्पर्श, मात्र अपनी साधना के बल पर मुनिधी की इस अन्तिम वेडी को खोलना चाहता हो तो आप उन्हे आदेश प्रदान करें। ___राजा को भी विद्वानो की यह वात पसन्द आयी। इसी आधार पर किसी आचीन्हें साधक का पता चलेगा। किसी से भी यदि चुनाती वरदान वा जाय ऐसा मोचकर उन्हाने उद्घोषणा की। सिर्फ कुछ क्षणो का अवसर दिया गया। परन्तु जनसभा में से कोई भी इस चुनौती को झेलने का साहस नहीं जुटा पाया। लज्जित बने हुए राजा ने विद्वज्जन से इसकी असमर्थता प्रकट करते हुए आचार्यश्री को ही वेड़ी खोलने का निवेदन प्रस्तुत किया।
यहाँ कर्मों के निर्मूलन के महान उपायो को आत्मसात् करते हुए आचार्यश्री पूर्ण प्रसन्नता की मुद्रा में विराजमान ह और उनके भीतर से प्रस्फुटित होता ह
स्तोत्रम्रज तव जिनेन्द्र । गुणेर्निवद्धा, भक्त्या मया रुचिरवर्णविचित्र-पुष्पाम्।
धत्तेजनो य इह कण्ठगतामजन,
त 'मानतुङ्ग'मवशा समुपैति लक्ष्मी ॥४८॥ जिनेन्द्र।
- हे जिनेन्द्र
- इस विश्व मे य जन
- जो मनुष्य
भक्ति पूर्वक मया
- आपके
प्रसाद, माधुर्य, ओज आदि गुणो से/धागो से
भक्त्या
- मेरे द्वारा
तुत