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प्रतीक १३५ घातिकों के सम्पूर्ण नाश की इस प्रक्रिया के बाद अब आचार्यश्री कहते हैं कि अपराजेय कर्मरूपी शत्रु अवश्य ही दुर्जेय है परन्तु परमात्मा का स्मरण इन पर विजय प्राप्त करने का सर्वोत्तम उपाय है। इसका समाहार करते हुए कहते हैं
वल्गत्तुरङ्ग-गजगर्जित-भीमनादमाजौ बल बलवतामपि भूपतीनाम्।
उद्यद्दिवाकरमयूख-शिखापविद्ध,
त्वत्कीर्तनात्तम इवाशु भिदामुपैति ॥४२॥ आजौ
- सग्राम मे, युद्ध स्थल मे त्वत्कीर्तनात्
- आपके कीर्तन से (आपके गुणो के
स्मरण से) वल्गत्तुरङ्गगजगर्जितभीमनादम् - हेषारव करते हुए, उछलते हुए घोडो
और गर्जना करते हुए हाथियो की
भयकर आवाज हो रही है जिसमे ऐसी बलवताम्
पराक्रमी-शक्तिशाली सेनाओ से युक्त अरिभूपतीनाम्
- शत्रु राजाओ की
- सेना उद्यदिवाकरमयूखशिखापविद्धम् - उदीयमान दिवाकर की किरणो के
अग्रभाग से भेदे गये तम इव
अन्धकार के सदृश
- शीघ्र ही भिदाम् उपैति
- विनाश को प्राप्त होती है। हे परमात्मा । जैसे सूर्योदय होते ही घने अन्धकार का शीघ्र ही नाश हो जाता है उसी प्रकार आपके स्मरण से, गुण कीर्तन से, अपराजेय ऐसे कर्मरूपी शत्रुओ का सर्वथा नाश हो जाता है। यहाँ शत्रु कर्म का प्रतीक है।
घातिकर्म रोके जाते हैं, उनका क्षय होता है, परन्तु अघाति कर्म मे ऐसे कोई उपाय संभव नहीं हैं। इनको अनिवार्य रूप से उदय मे आने पर भोगने पड़ते हैं। यहाँ पर प्रस्तुत चार श्लोक वेदनीयादि अघाति कर्म के प्रतीक हैं। इनमें और उपरोक्त श्लोकों मे यही अन्तर है। ऊपर में कहा गया है कि प्रभ के नाम स्मरण से उपसर्ग रोके जा सकते हैं, प्रस्तुत पघाम बताया है कि उपसर्ग के समय में कछ समय तक परमात्मा में लीन रहने से इन उपसर्गों को पार किये जा सकते हैं।
जस घातिकर्मों का प्रतिनिधित्व मोहनीयकर्म करता है वैसे ही अघाति कर्मों का प्रातानाधत्व वेदनीय कर्म करता है। इसकी स्पष्ट झलक अब हम आगे के पधों में पायेंगे
वलम्
आशु